सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

शनिवार, 28 अप्रैल 2018

घर-घर में भगवान: देश समाज का अहित करने वाले भगवान


इस कराल कलिकाल में अपने को ही भगवान कहने और समझने वाले लोगों की बाढ़ सी आ गयी है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने बहुत पहले ही कहा था कि- ‘जग जगदीश घर घरनि घनेरे हैं’ । आज यह बात बिल्कुल चरितार्थ हो रही है ।


अपने को ही भगवान कहने, बताने  अथवा समझने के पीछे  मुख्य रूप से तीन कारण होते हैं- १. मूर्खता, २. ज्ञान और ३. अहंकार ।


 कोई-कोई मूर्खता बस अपने को भगवान कहने अथवा समझने लगता है । कोई-कोई अपने को ज्ञानी समझकर अपने ज्ञान के बल पर यह सोचने और समझने लग जाता हैं कि मैं भगवान से कहाँ कम हूँ । कोई-कोई अभिमान बस अपने को भगवान कहने और कहलवाने लगता है ।


 इस प्रकार आज जहाँ देखो वहीं ऐसे लोग मिल जाते हैं । क्योंकि आजकल ऐसे मूर्ख, ज्ञानी और अभिमानी की कमी नहीं है । गोस्वामी जी कहते थे कि घर-घर में भगवान भले ही भरे हैं लेकिन इनसे किसी दीन हीन का कोई काम बनता थोड़े है । वस्तुतः इनसे इनका और देश, समाज का अहित ही होता है । 

संसार में जो निराधार हैं, जिन्हें किसी का सहारा नहीं है । उन्हें तो रामजी के गुनगनों का ही आधार है । सहारा है । तीनों लोकों में दीनों को आधार देने वाला, उनकी सुनने वाला कोई नहीं है । जो हर प्रकार से हीन हैं उन्हें केवल और केवल श्रीसीताराम जी ही एकमात्र गति देने वाले हैं । आधार हैं ।


 अज्ञान, अभिमान और स्वार्थ आदि के बशीभूत होकर लोग भगवान से दूर होते जाते हैं । ऐसे में कुछ लोग स्वयं को ही और कुछ लोग किसी दूसरे को भगवान मानने व समझने लग जाते हैं । और चर-अचर सभी के एक मात्र भगवान श्रीसीताराम सरकार  से दूर हो जाते हैं । 


   ।। जय श्रीसीताराम ।।



गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

कोई भी व्यक्ति (जीव) भगवान अथवा भगवान के समान नहीं हो सकता


कोई भी व्यक्ति (जीव) भगवान नहीं बन सकता । न ही कोई व्यक्ति भगवान के समान होता हैं । भगवान एक ही  हैं । अद्वितीय हैं । उनके समान कोई नहीं है । यह शास्त्र सम्मत है ।


   हाँ भिन्न-भिन्न व्यक्ति की भिन्न-भिन्न कक्षायें हो सकती हैं । लेकिन किसी भी व्यक्ति की कक्षा भगवान के बराबर नहीं होती ।


     यदि किसी को भगवान के समतुल्य बताया गया है अथवा कहा गया है तो इसका सिर्फ इतना ही मतलब है कि इनकी कक्षा अपने से ऊँची हैं । इनका मान सम्मान और आदर करना है । बस । किसी व्यक्ति विशेष को ही भगवान मान लेना गलत है ।


जैसे माता-पिता का आदर करना चाहिए । गुरु का आदर करना चाहिए । यह सब ठीक है और मनुष्य मात्र के लिए जरूरी भी है । क्योंकि इनकी कक्षा बहुत ऊँची है 


  किसी भी व्यक्ति को न यह कहना चाहिए और न ही सोचना चाहिए कि वह  भगवान है अथवा भगवान बन गया है । क्योंकि जीव कभी भी भगवान नहीं हो सकता और जो ऐसा कहता और सोचता है वह घोर नर्क में जाता है-



जौ अस हिसिषा करहिं नर जड़ विवेक अभिमान ।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ।।


  इसलिए मान अथवा अभिमान या फिर स्वार्थ बस न अपने को और न ही अन्य किसी को भगवान समझना चाहिए । भगवान तो सिर्फ और सिर्फ सीताराम जी हैं । इनकी कृपादृष्टि मिल जाय ऐसा ही प्रयास होना चाहिए 



   ।। जय श्रीसीताराम ।।

_____________________________





मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

अपने शत्रु का भी भला चाहने वाले भगवान श्रीराम


सामान्यतयः लोग स्वयं के हित का चिंतन करते हैं । इससे अधिक अपना हित चिंतन और अपने घर-परिवार का हित चिंतन । इसके साथ ही अपने मित्र का हित चिंतन लोग करते हैं । लेकिन क्या कोई ऐसा है जिसे अपने शत्रु के हित की भी चिंता हो ?


 ऐसा देखा जाता है कि लोग क्रोध में आकर अपने सगे-सम्बंधी और मित्र का भी बुरा सोचने लगते हैं । यहाँ तक माता-पिता भी क्रोध वश अपने संतान को भी बहुत कुछ कह देते हैं और अहित चिंतन करने लगते हैं । बुरा करने को सोच जाते हैं अथवा सोचने लगते हैं ।


 ऐसे में क्या कोई अपने शत्रु का हित चिंतन कर सकता है ? और ऐसा शत्रु जिसने बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो । उसका हित चिंतन कौन करेगा ? लेकिन हमारे रामजी ऐसे हैं जो अपने शत्रु का भी हित चिंतन करते हैं । वैसे तो कोई भी उनका शत्रु नहीं है । फिर भी लीला की दृष्टि से रावण को उनका शत्रु कहा जाता है ।


  भगवान राम रावण का भी हित चिंतन करते थे । इसलिए उसे बार-बार समझाने का प्रयास कर रहे थे । जब अंगदजी दूत बनकर जाने लगे तब भगवान राम ने कहा-


 “काज हमार तासु हित होई । रिपु सन करेउ बतकही सोई” ।।


अर्थात हे अंगद आप रावण से वैसी ही बातचीत करना जिससे मेरा कार्य पूर्ण हो जाए और शत्रु का भी हित यानी भला हो


धन्य हैं भगवान श्रीराम जो अपने शत्रु का भी भला चाहते हैं ।




        ।। जय श्रीसीताराम ।।


शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

भगवान श्रीराम का स्वभाव: अपराधी पर भी कृपा


भगवान राम की सरलता संतों, भक्तों और ग्रंथों के मध्य बड़ी प्रसिद्ध है । वे सबका हित करनेवाले हैं । वे किसी का अनहित करना जानते ही नहीं हैं । वे किसी के विमुख नहीं होते । उनकी किसी पर कुदृष्टि नहीं होती । इसलिए उन्हें सुमुख सुलोचन भी कहा जाता है ।


   यह सोचने वाली बात है कि भगवान राम ऐसे केवल अपने भक्तों के लिए हैं । अथवा सबके लिए । तो इसका सीधा जबाब है सबके लिए । भक्तों पर विशेष कृपा होती है । वह दूसरी बात है ।


 मान लीजिए कोई रामजी का अपराधी हो अर्थात उसने रामजी के प्रति अपराध कर दिया हो । अथवा कर रहा हो तो उसके ऊपर भी राम जी क्रोध नहीं करते ।


ऐसा इसलिए है क्योंकि रामजी केवल कृपा करना और तारना ही जानते हैं । लीला में भले लगे अथवा दिखे कि रामजी ने उसे मार दिया । लेकिन वे मारते नहीं तारते हैं ।


भरतजी कहते हैं कि मैं अपने स्वामी भगवान राम का स्वभाव जानता हूँ । वे अपने अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते-



मैं जानौं निज नाथ स्वभाऊ । अपराधिहुँ पर कोह न काऊ ।।


।। जय श्रीसीताराम ।।



बुधवार, 11 अप्रैल 2018

वानरों और भालुओं को चराना कितना कठिन है


सोचने वाली बात है कि वानर और भालू स्वभाव से ही चंचल होते हैं । इन्हें उछल-कूद ही ज्यादा भाती है । इन्हें जब क्रोध आता है तो बहुत आता है । ऐसे में जहाँ एक-दो नहीं, हजार और लाख नहीं असंख्य वानर और भालू हों तो उन्हें संभालना और अनुशासित रखना कितना मुश्किल कार्य है ।


धन्य हैं हमारे रामजी जो असंख्य वानरों और भालुओं की सेना को भी अनुशासित और मर्यादित रखते हैं । भगवान राम की सरलता, उनका धैर्य, उनकी सहनशक्ति सब कुछ सराहनीय है


  ऐसी सेना यानी वानरों और भालुओं की सेना लेकर युद्ध के नियमों का पालन करना और मर्यादित युद्ध करना कितना कठिन है । फिर भी हमारे रामजी ने बड़ी कुशलता पूर्वक ऐसा कर दिखाया ।


  वानर और भालुओं में चंचलता आदि होने के बावजूद एक बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि सबके सब रामजी की आज्ञा के अधीन थे । यह किसी भी सेना के लिए बहुत जरूरी होता है ।


इससे अनुशासन और मर्यादा बनती है । राम-रावण युद्ध में ऐसे अवसर आते थे कि वानर और भालु को अपने को रोक पाना बहुत मुश्किल हो जाता था । वे युद्ध के लिए उतावले रहते थे । लेकिन रामजी अनुशासन और मर्यादा के पालन करने वाले हैं । इसलिए उन्हें रोकते थे ।


 वानर और भालू जब परम क्रोधित हो जाते थे तो अपने हाथों को मीजकर रह जाते थे । क्योंकि रामजी की आज्ञा नहीं मिलती थी । अभी नहीं, ऐसा नहीं यह वानर और भालुओं को रोके रहते थे । धन्य हैं राम जी जिन्होंने वानर और भालुओं को चराया । अनुशासित और मर्यादित रखा । जो कि बहुत ही मुश्किल कार्य है-


परम क्रोध मीजहिं सब हाथा । आयसु पै न देंइ रघुनाथा ।।



।। जय श्रीसीताराम ।।





शनिवार, 7 अप्रैल 2018

पवनतनय के चरित सुहाए-१७ (हनुमान जी का रावण के अन्य प्रश्नों का उत्तर देना )


हनुमानजी महाराज से रावण ने पूछा था कि क्या तुमने अपने कानों से हमारे बारे में नहीं सुना  है ? अर्थात रावण अपनी प्रभुता के बारे में पूछ रहा था कि क्या तुम्हें मेरी प्रभुता के बारे में  पता नहीं है ?
  हनुमानजी महाराज ने कहा कि हे रावण मैं तुम्हारी प्रभुता जानता हूँ । तुम्हारी सहसबाहु से लड़ाई हुई थी । इस लड़ाई में रावण की हार हुई थी । सहसबाहु ने रावण को ऐसे पकड़कर दबोच लिया था जैसे किसीने किसी छोटे प्राणी को सहज ही दबोच लिया हो । हनुमानजी महाराज ने आगे कहा कि बालि से युद्ध करके तुम्हें बहुत यश मिला था । रावण ने बालि से हारने के बाद संधि कर लिया था । हनुमानजी के ऐसे बचनों को सुनकर रावण ने हँसकर अनसुना कर दिया ।

हनुमानजी महाराज ने आगे कहा कि मेरे ह्रदय में स्थिति प्रभु को भूँख लगी थी इसलिए मैंने रामजी को अपर्ण करके प्रसाद ले लिया । फल तो रामजी ने खाए हैं । हनुमानजी ने कहा कि बंदर के सहज स्वभाव से मैंने वृक्षों को तोड़ा है । अर्थात मैंने जान-बूझ कर ऐसा नहीं किया है यह तो बानरों का सहज स्वभाव है ।

रावण ने पूछा था कि तुमने राक्षसों को क्यों मारा ? इसके जबाब में हनुमानजी ने कहा कि सबको देंह प्रिय होती है । लेकिन मुझे मेरे स्वामी परम प्रिय है । और मेरे स्वामी रामजी अपना घर बनाकर मेरी देंह-ह्रदय में रहते हैं । और दुष्ट राक्षस मुझे मार रहे थे-मेरी देंह पर प्रहार कर रहे थे । इसलिए जिसने मुझको मारा मैंने उसे मार डाला । इसपर तुम्हारे पुत्र ने मुझे बाँध लिया । लेकिन मुझे बाँधे जाने पर कोई लज्जा नहीं है । मैं तो अपने स्वामी भगवान राम का कार्य पूरा करना चाहता हूँ ।

  अर्थात भगवान के किसी भी कार्य के लिए लज्जा की कोई बात नहीं होती । कुछ भी करना पड़े तो करना चाहिए यदि कृत से भगवान का कार्य होता हो । इसीप्रकार भजन में भी लज्जा की कोई बात नहीं होती । जैसे भजन बने भजन करना चाहिए । जो भगवान से जोड़े वह जुड़ने योग्य-करने योग्य होता है । जिसमें भगवान की प्रसन्नता हो उसे करना ही चाहिए ।

                                              (शेष भाग-१८ में ।)


।। जय श्रीसीताराम ।।


सोमवार, 2 अप्रैल 2018

पवनतनय के चरित सुहाए-१६ (हनुमान जी का रावण के पूछने पर अपना परिचय देना )


हनुमानजी को देखकर रावण दुर्वचन कहकर जोर से हँसा ।  फिर अपने पुत्र अक्ष कुमार के बध की बात स्मरण में आते ही उसके ह्रदय में दुःख उत्पन्न हुआ । रावण ने हनुमानजी से कहा कि हे बंदर तुम कौन हो ? और किसके बल से वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला है । मूर्ख तूँ बहुत निडर दिखलाई पड़ रहा है । लगता है तुमने अपने कानों से मेरे बारे में सुना नहीं है । तुमने किस अपराध से राक्षसों का बध किया है । हे मूर्ख बता कि क्या तुझे अपने प्राण जाने का भय नहीं है ।

  हनुमानजी महाराज ने कहा कि हे रावण सुनों जिनका बल पाकर माया समस्त व्रह्मान्डों की रचना करती है ।

 हे रावण जिनके  बल से  व्रह्मा जी सृष्टि की रचना, विष्णुजी सृष्टि का पालन और शंकर जी सृष्टि का संहार करते हैं । जिनके बल से सहस्त्र मुख वाले शेष जी वन, पर्वत सहित समस्त व्रह्मान्डों को अपने सिर पर धारण करते हैं ।

हनुमान जी ने आगे कहा कि जो तुम जैसे मूर्खों को शिक्षा देने के लिए और देवताओं की रक्षा करने के लिए नाना शरीर (अवतार) धारण करते हैं ।
                          
जिन्होंने भगवान शंकर के कठोर धनुष को तोड़कर उसके साथ राजाओं के दल का मद चूर्ण कर दिया है । और जिन्होंने खर, दूषण, त्रिसरा अरु बालि, जो सबके सब बहुत ही बलशाली थे, का बध कर दिया है । जिनके लेशमात्र बल से तुमने सम्पूर्ण चराचर जगत को जीति लिया है मैं उन्ही भगवान राम का दूत हूँ जिनकी प्रिय पत्नी को तुम हरण करके ले आये हो ।

 इस प्रकार हनुमान जी महाराज ने रावण की सभा में रावण द्वारा पूछे गए पहले प्रश्न का इतना बड़ा उत्तर दिया ।

पहला प्रश्न यही था कि हे वानर तुम कौन हो और किसके बल से हमारी वाटिका को तहस-नहस कर दिया है ।

  हनुमानजी महाराज ने बताया कि इस समस्त संसार में एक मात्र मेरे प्रभु राम का ही बल है । जो बल व्रह्मा, शिव और नारायण में है वह भी मेरे स्वामी का ही है । शेष नाग में भी मेरे स्वामी का ही बल है । सबमें मेरे स्वामी का ही बल है । यहाँ तक जो लेशमात्र बल तुममें है वह भी मेरे स्वामी का है । अर्थात तुम पूछ रहे हो कि किसके बल से मैंने तुम्हारी वाटिका को उजाड़ा है । तो सुनों जिसके बल से सब में कुछ करने की शक्ति आती है मैं उन्हीं भगवान राम का दूत हूँ जिनकी प्रिय पत्नी का तुमने धोखे से हरण कर लिया है ।

                                              (शेष भाग-१७ में )


।। जय श्रीसीताराम ।।


चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

______________________________


।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

______________________________


लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

___________________________________________

विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

_________________________________________

प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

_________________________________

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

____________________________________________

भगवान की तलाश

___________________________________

सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

___________________________________

भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

___________________________________

भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

___________________________________

संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

__________________________________




रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

__________________________________________

।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

_________________________

।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

______________________________


श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

______________________