सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

तुलसीदासजी का मान

मान, अभिमान और अंहकार जीवन में दुख के कारण बनते हैं । इनसे जीव सत्य से दूर होता जाता है । सही को गलत और गलत को सही समझने अथवा समझाने लगता है । जीवन का उद्देश्य परम कल्याण बताया गया है । जीव का परम कल्याण कब होगा- जब जीव राम जी के चरणों से जुड़ेगा । जीव जितना अधिक मान, अभिमान और अंहकार आदि से दूर होता जाएगा उतना ही अधिक राम जी से जुड़ता जाएगा ।
                           

इसलिए हमारे सदग्रंथ और हमारे संत हमें मान, अभिमान से दूर रहने को कहते आ रहे हैं । मान, अभिमान और अहंकार के वशीभूत होकर हम अपना बहुत नुकसान कर जाते हैं । अपना करें न करें लेकिन इनके वशीभूत होकर हम दूसरों का ज्यादा नुकसान कर बैठते हैं । जो उचित नहीं है । हमें तो संसार में समता लाने और विषमता मिटाने का प्रयास करना है । हमें किसी का अपकार नहीं करना है, जितना हो सके परोपकार करना है । यही शिक्षा ग्रन्थ और संत देते आ रहे हैं । मान, अभिमान और अहंकार से दूर होकर परमार्थ में लगना ही मानवता है ।


 हम सही अर्थों में मानव बनकर राम जी से जुड़ें यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए । यही जीवन का उदेश्य कहा गया है ।


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज बहुत पहुँचे हुए भक्त, संत थे । वैसे तो मान नहीं करना चाहिए । फिर भी गोस्वामीजी को भी एक बात का मान था ।  गोस्वामीजी कहते थे कि सभी लोग हमको राम जी का कहते हैं । कहते हैं कि यह राम जी का है । भले ही कुछ लोग कहते हैं कि यह राम जी का झूठा सेवक है और कुछ लोग कहते हैं कि यह रामजी का सच्चा सेवक है ।


  गोस्वामीजी कहते कि कितनी अच्छी बात है कि मैं राम जी का हूँ । मैं झूठा हूँ तो भी रामजी का हूँ और यदि सच्चा हूँ तो भी राम जी का हूँ । जैसा भी हूँ और जो भी हूँ रामजी का ही हूँ । और मुझे इस बात का मान है कि मैं राम जी का हूँ ।


  संसारिक लोगों को इस बात का मान होता है कि वह अमुक और अमुक व्यक्ति से जुड़ा हुआ है जब लोग उसे संसार के बड़े-बड़े लोगों का कहते और बताते हैं तो उसका सीना चौड़ा हो जाता है । संसार में लगा हुआ प्राणी जितना अधिक संसार से जुड़ता है उतनी ही उसे प्रसन्नता होती है । 


लेकिन जो राम जी से जुड़े हैं अथवा जुड़ना चाहते हैं उन्हें संसार के लोगों का बनने से, कहने से अथवा कहलवाने से क्या मिलेगा ? यदि गोस्वामी तुलसीदास जी जैसा मान हम लोगों को भी हो जाए तो अपना भी जीवन सफल हो जाए । 






।।  जय श्रीसीताराम ।।





सोमवार, 16 नवंबर 2015

जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए

प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन में उपलब्धि का अलग-अलग मतलब होता है । कोई अच्छे व्यवसाय को, कोई अच्छी नौकरी इत्यादि को अपने जीवन की बड़ी उपलब्धि मानता है । लेकिन इस संसार में सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है ? अच्छा घर, गाड़ी, नौकर-चाकर, बैंक-बैलेंस, मान-सम्मान आदि ही क्या इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं ? नहीं । ऐसा नहीं है । यदि हम ऐसा सोचते हैं तो गलत है । इस बात को समझ पाना, मान पाना, स्वीकार कर पाना कठिन हो सकता है । लेकिन सच तो यही है ।


 जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि भगवान श्रीराम की भक्ति है । उनके चरणों में प्रेम है । यदि हम रामजी के चरणों में प्रेम नहीं कर पाए तो समझो कुछ नहीं कर पाए । इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अन्य उपलब्धियों को त्याग देना चाहिए । अन्य उपलब्धियों का कोई मतलब नहीं है । यदि हम संसार से बिरक्त नहीं हुए हैं । यानी घर-गृहस्थी चला रहे हैं तो इन उपलब्धियों का भी महत्व है । और इनकी जरूरत भी है । लेकिन केवल इनको पाकर यह सोचना कि हमने सब पा लिया है । गलत है । जीवन की पूर्णता तभी है जब हम रामजी के चरणों से जुडेंगे । यदि हम रामजी के चरणों से नहीं जुड़ पाए तो ऐसा समझना चाहिए कि हम कुछ भी नहीं कर पाए ।
                                 

एक बार कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि आपके जीवन का सबसे सकारात्मक पहलू क्या है ? सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है ? तो मैंने जबाब दिया कि श्रीरामचरितमानस जी से मेरा लगाव और भगवान श्रीराम जी के चरणों से मेरा जुड़ाव ही मेरे समझ से मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । मेरे जीवन का सबसे सकारात्मक पहलू है ।


यह वह उपलब्धि है जिसे लोग अज्ञानतावश उपलब्धि की श्रेणी में रखते ही नहीं । और इसलिए बहुत कुछ प्राप्त करने में लगे रहते हैं । और इस ओर ध्यान ही नहीं जाता । अथवा ध्यान देना जरूरी ही नहीं समझते ।


 जीवन में जो जरूरी हो उसे सत्य और न्याय के पथ पर अग्रसर होकर प्राप्त करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए । लेकिन केवल संसारिक उपलब्धियाँ प्राप्त करके ही जीवन की सम्पूर्णता नहीं मान लेना चाहिए । जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त करने को हर प्राणी का हक है । कर्तव्य है । इसके लिए हर किसी को हमेशा प्रयत्न करना चाहिए ।




।। जय सियाराम ।।

रविवार, 1 नवंबर 2015

एक काम जो नहीं हो पाता...

जीव संसार में आकर बहुत सारे काम करता है लेकिन सामान्यतः एक काम नहीं कर पाता । इस संसार में आकर जीव चाल और कुचाल चलने लगता है क्योंकि भोग रुपी रोग उसके ज्ञान का, बुद्धि का हरण कर लेते हैं ।


 संसार में पेट भरने के लिए जीव नाना हथकंडे अपनाता है, सन्मार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर दौड़ता जाता है । इस बात को जानने के बावजूद कि अंत समय में कुछ साथ नहीं जाएगा, खाली हाथ ही जाना पड़ेगा फिर भी अधर्म का आचरण करता है । अर्थात साथ में कुछ भी नहीं जाना है, अंत निश्चित है फिर भी बहुत कुछ इकट्ठा करने में लगा रहता है और इसके लिए धर्म और अधर्म का बिचार भी त्याग देता है । और अधर्म के रास्ते पर चलकर बहुत कुछ जोड़ना चाहता है, जोड़ता है । संतुष्टि नहीं मिलती ।


इससे ही पाप, परिताप और शोक-संताप से दिन-रात जलता रहता है । सच्ची शन्ति नहीं मिलती । राम जी से जुड़ने से ही सही शांति और आराम मिलता है । लेकिन यह उससे हो नहीं पाता । ऐसे में इस संसार द्वारा जनित दारुण दुख कैसे दूर हो ? भला बिना राम के सांसारिक महादुख दूर हो सकता है क्या ?


इतना ही नहीं प्रपंच और निंदा रुपी दूध पीकर जिह्वा रुपी सर्पिणी मुँख रुपी बिल में घूमती रहती है । अर्थात जीव तरह-तरह की अनर्गल बातों में और दूसरे की निंदा कहने और सुनने में आनंद पाता है और उसी में लगा रहता है और अमूल्य समय व जीवन को सार्थक नहीं कर पाता । जीवन तभी सार्थक है जब इसे राम जी से जोड़ दिया जाय । अन्यथा सब कुछ करके भी कुछ नहीं होने जैसा ही रहता है । संत लोग कहते हैं कि वह जिह्वा सापिन और मुँख बिल के समान ही होता है जो राम जी का नाम नहीं लेती, राम जी के गुणगणों का गायन नहीं करती । सर्पिणी जिह्वा किसी काम की नहीं होती, इससे न अपना और न ही दूसरे का भला होता है ऐसे में ऐसी जिह्वा का सड़ जाना अथवा न होना ही अच्छा होता है ।


  राम जी से जुड़ना, राम जी से प्रेम करना ही वह काम है जो जीव नहीं कर पाता । वह जीवन में बहुत कुछ करता है । जब तक जीता है करता है । जब तक कर पाता है करता है । करते-करते मर जाता है । लेकिन इस काम के लिए उसके पास समय नहीं रहता । बाकी सबकुछ करने के लिए उसके पास समय होता है । लेकिन यह काम नहीं हो पाता-


जग में आइ  बसा जिव जबसे छाड़ि एक बहु काम करै ।
चाल, कुचाल चलै जग में भोग-रोग मति ज्ञान हरै ।।१।।

सुमारग छोड़ि कुमारग धावै नाना जतन करि पेट भरै ।
अंत में साथ नहीं कुछ हाथ जानत मगर अधर्म चरै ।।२।।

पाप, परिताप शोक संताप ते शांति बिना दिन-राति जरै ।
राम बिना आराम कहाँ बेराम महादुख काहे टरै ।।३।।

प्रपंच पिसुनता छीर पिए सापिन जिह्वा बिल बदन फिरै ।
संतोष जो राम भजै नहिं जीहा तो बिनु काम भला जो सरै ।।४।।


                       (विनयावली-५०|१-४ )




।। जय श्रीसीताराम ।।


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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

चतुराई छोड़कर राम जी से नाता जोड़िए

कभी अपने सम्मान के लिए तो कभी दूसरों के अपमान के लिए, कभी अपने लाभ के लिए तो कभी दूसरों के नुकसान के लिए, कभी अपने को ऊँचा दिखाने के लिए तो कभी दूसरों को नीचा दिखाने के लिए लोग चतुराई का इस्तेमाल करते हैं ।



  कई लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास ऐसी चतुराई नहीं होती है । ये लोग सीधे-साधे, सरल अथवा भोले कहे जाते हैं । चतुराई वाले लोग इन लोगों को परेशान भी करते हैं अथवा कर सकते हैं । और कई बार इन्हें कुछ नुकसान भी उठाना पड़ता है अथवा पड़ सकता है ।



  फिर भी दूसरे श्रेणी में होने से एक फायदा यह होता है कि ये लोग राम जी से आसानी से जुड़ सकते हैं । उपरोक्त तरह के चतुर लोग राम जी को प्रिय नहीं हैं । राम जी को सीधे-साधे सरल लोग ही भाते और लुभाते हैं । कहा भी जाता है कि जो जैसा होता है उसे वैसा ही भाता है ।


यह बात राम जी पर पूरी तरह लागू होती है । राम जी भी बहुत ही सीधे-साधे, सरल और भोले हैं । इसलिए ही भोले-भाले लोग राम जी को बहुत भाते हैं ।


    चतुराई बिना छोड़े हम लाख जतन करें तो भी राम जी की कृपा नहीं मिलेगी । चतुराई से हम थोड़ा-बहुत लाभ कमा सकते हैं, मान-सम्मान आदि पा सकते हैं यानी संसार में भले ही सफल हो सकते हैं परंतु राम जी से नहीं जुड़ सकते हैं ।



 अतः राम जी से यदि जुड़ने की इच्छा है, रामजी की कृपा प्राप्त करने की इच्छा है तो हमें चतुराई छोड़कर सरलता की ओर कदम बढ़ाना चाहिए । चतुराई छोड़कर जैसे ही हम रामजी का  भजन शुरू करेंगे । हमें रामजी की कृपा प्राप्त होने लगेगी ।




।। जय श्रीसीताराम ।।




गुरुवार, 24 सितंबर 2015

तत्व ज्ञान : आसक्ति का अंत और समता की पराकाष्ठा

एक मित्र ने मुझसे पूछा कि विजडम क्या है ? मैंने कहा विजडम का मतलब सच्चा ज्ञान है इसे हम तत्व ज्ञान भी कह सकते हैं । कोई दूसरा इसका अलग तरीके से भी अर्थ कर सकता है । लेकिन श्रीरामचरितमानस के आधार पर, हमारे अनुसार जब जीव में समता आ जाए तो समझना चाहिए कि इनको तत्व ज्ञान हो गया है ।



समता का मतलब है कि जब जीव के लिए छोटे-बड़े, अपने-पराये का अंतर समाप्त हो जाये । उसे सबमें श्रीसीताराम जी दिखाई पड़ने लगें यानी ‘सीयराम मय सब जग जानी’ वाली स्थिति आ जाय तो समझना चाहिए कि इस व्यक्ति ने विजडम प्राप्त कर लिया है । यानी इस व्यक्ति को तत्व ज्ञान हो गया है ।



मित्र ने फिर पूछा कि क्या समता से संसार चल सकता है ? क्या कोई संस्था चल सकती है ?
मैंने कहा कि नहीं । मैंने कहा कि संसार तो विषमताओं से भरा है । समता से न ही संसार और न ही कोई संस्था ही चल सकती है । इसलिए ही जबतक अटैचमेंट है तबतक तत्वज्ञान नहीं होता । इसलिए ही तो माया-मोह त्यागने की सलाह दी जाती है ।



हम लोग संसार से जुड़े प्राणी हैं । इसलिए ही हमें सच्चा ज्ञान नहीं है । सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें संसारिक आसक्ति को त्यागना पड़ता है । जबतक संसार में आसक्ति है तब तक ‘सीयराम मय सब जग जानी’ वाली स्थिति कैसे और कहाँ से आएगी ?


 
।। जय श्रीसीताराम ।।


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मंगलवार, 1 सितंबर 2015

राम कथा महात्म्य

श्रीराम कथा की महिमा अनंत है, अपार है । वेद-पुराण, रामायण , श्रीरामचरितमानस, संत व भक्त  सभी राम कथा की महिमा मुक्त कंठ से गाते हैं । लेकिन कोई न ही कथा का पार पा सकता है और न ही पाता है ।


  संसार के लोग संसारिक कार्यों के कारण भूले रहते हैं और दुख में जीते हैं और दुख में ही मर जाते हैं । सच्चा सुख नहीं मिल पाता । सच्चा सुख राम जी से, राम नाम से राम जी की कथा से जुड़ने से ही मिलता है । राम कथा से हर किसी का कल्याण होता है-



राम कथा सुर नर मुनि गाते हैं । अमित अपार कोई पार नहीं पाते हैं ।।

भाँति अनेक सब कहते सुनाते हैं । मति अनुरूप गाइ-गाइ सुख पाते हैं ।।

राम कथा गंगा में जो भी नहाते हैं । पापी, तापी, शापी सभी भव तर जाते हैं ।।

राम कथा में जो मन को लगाते हैं । भाल कुअंक सुअंक बन जाते हैं ।।

पाप, ताप, शाप कथा सुने मिट जाते हैं । प्रगट प्रभाव भूले लखि नहीं पाते हैं ।।

सुनि गुनि कथा जो मन में बसाते हैं । राम धाम सुजन ये सहज सुहाते हैं ।।

राम कथा रस पिए रसिक बताते हैं । पीते ही जाते सदा कभी न अघाते हैं ।।

राम कथा में जो मन को रमाते हैं । संतोष-भाई उसे अपना बनाते हैं ।।





।।  जय श्रीसीताराम ।।



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शनिवार, 22 अगस्त 2015

संत और भगवंत की समरूपता

भारत भूमि संतों की भूमि रही है । यहाँ एक से एक महान संत हुए हैं । सामान्य जन अपने कल्याण और आध्यात्मिक लाभ के लिए संत से जुड़ना चाहता है । उसे सच्चे संत की तलाश हमेशा रहती है । कई बार लोग संत का वाना धारण किए किसी व्यक्ति के चक्कर में पड़ जाते हैं और बाद में पछताते हैं । आज के समय में सच्चे संत का मिल पाना असम्भव नहीं तो भी बहुत मुश्किल है ।


   कहा जाता है कि संत और भगवंत में कोई अंतर नहीं होता है अर्थात संत भगवान के ही समरूप होते हैं ऐसे संत जो भगवान के समरूपता की उपमा रखते हों उनके क्या-क्या लक्षण होते हैं ? ऐसे संतो के लक्षण अथवा गुण अनंत होते हैं । जिनका वर्णन कर पाना देवताओं के लिए भी सरल नहीं  है । फिर भी संतों के कुछ लक्षण निम्न हैं-


१.     संत भूलकर भी बुरे रास्ते पर नहीं जाते । भगवान श्रीराम के चरणों के अलावा न ही इन्हें अपनी शरीर प्रिय होती है और न ही घर । और ये सदा राम जी की लीला कथाओं को गाते और सुनते रहते हैं ।


२.       ये दूसरों के गुण को सुनकर हर्षित होते हैं और अपना गुण सुनकर सकुचाते हैं अर्थात अपना गुण सुनना ही नहीं चाहते ।


३.      इनका सरल स्वभाव होता है । ये सबसे प्रीति करते हैं । सम और शीतल होते हैं और नीति का कभी त्याग नहीं करते ।


४.      ये जप, तप, व्रत करते हैं और इन्द्रियों का दमन करते हैं तथा संयम और नियम से रहते हैं

५.      ये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर को जीत लेते हैं । अर्थात इन छः विकारों का प्रभाव इनके ऊपर नहीं होता है ।


६.      ये पापरहित, कामनारहित और स्थिरबुद्धि के होते हैं


७.      ये सबकुछ त्यागे हुए, बाहर-भीतर से पवित्र और सुख के धाम होते हैं


८.      ये असीम ज्ञानवान, इच्छारहित, कम भोजन करने वाले, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान और योगी होते हैं । कवि कई लोग हो सकते हैं लेकिन संत;  कविता केवल अपने ईष्ट के लिए करते हैं जैसे गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज केवल राम जी के लिए ही लिखते थे ।

९.      ये अभिमान रहित, दूसरों को मान देने वाले, धैर्यवान तथा धर्म, वेद-पुराण के ज्ञान और अर्थ में निपुण तथा आचरणवान होते हैं


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज एक ऐसे ही संत थे । सच्चे संत के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चलने से देश-समाज का कल्याण होता है और मानवता का विकास होता है । उनके संदेश व उपदेश उनके न रहने पर भी अनेकों वर्षों तक देश-समाज का कल्याण करते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी के संदेश व उपदेश उनके ग्रंथों के माध्यम से आज भी देश-समाज, साधारण जन, संत और भक्त सभी के लिए अनुकरणीय हैं 


गुरुवार, 6 अगस्त 2015

कौन सी स्त्री पुत्रवती होती है ?

सामान्यतया लोग सोचते हैं कि जिसके बेटा है वही स्त्री पुत्रवती है । और इसलिए कई लोग बेटा प्राप्त करने के लिए परेशान रहते है । संसारिक लोगों की दृष्टि में यही सही है । लोग ऐसा ही सोचते हैं, मानते हैं और जानते हैं । लेकिन सिर्फ बेटा होने मात्र से ही कोई स्त्री पुत्रवती नहीं हो जाती ।  गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के अनुसार ऐसा ही है ।


  गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि कई लोग माता की तरुणावस्था रुपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी मात्र होते हैं । इस तरह के बेटे से कोई स्त्री पुत्रवती कैसे हो सकती है ? ऐसा बेटा पैदा करने के बजाय बाँझ होना अधिक श्रेयष्कर होता है ।


  
   यदि बेटा हो तो उसे श्रीरामचरणानुरागी होना चाहिए । ऐसे बेटे से परिवार की कई पीढियाँ तर जाती हैं । इससे माता-पिता का जीवन धन्य हो जाता है । यदि बेटे में भगवान राम के प्रति अनुराग नहीं है । भक्ति नहीं है । तो ऐसे पुत्र से हानि अधिक और लाभ कम होता है ।



  इस प्रकार से इस संसार में केवल वही स्त्री पुत्रवती है जिसका बेटा रामजी का भक्त है । अन्यथा बेटा होने के बावजूद भी वह पुत्रवती नहीं है –



पुत्रवती युवती जग सोई । रघुपति भगत जासु सुत होई ।।



।। जय श्रीसीताराम ।।




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मंगलवार, 21 जुलाई 2015

प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान...

भगवान श्रीरामचन्द्रजी करुणा के सागर हैं । रामजी जैसा शीलवान, क्षमावान और करुणानिधान कौन हो सकता है ? भगवान राम की अहैतुकीकृपा वानरों और भालुओं पर भी ऐसी बरसी कि उन्हें गुणवान, बुद्धिमान, सम्माननीय और पूजनीय बना दिया । पहले लोग वानरों और भालुओं को विकारयुक्त मानते थे । लेकिन जबसे रामजी ने इन्हें अपनाया बानर और भालू भी पूजनीय हो गए ।


  राम जी जैसा समर्थ, गुणवान और महिमावान भला वानरों और भालुओं को अपनाता है क्या ? लेकिन यह भी तो सोचने वाली बात है कि राम जी जैसा है ही कौन ? हमने न ही देखा है, न सुना है, न पढ़ा है कि किसी ने भी ऐसी करुणा बानरों और भालुओं पर कहीं भी और कभी भी किया है ।


  देवताओं को ही ले लीजिए ब्रह्माजी, बिष्णु जी, शिवजी और इन्द्रादि देवताओं ने भी कभी भी ऐसी कृपा नहीं की है ।


   राम जी ने वृक्षों, जंगलों और गुफाओं में रहने वाले वानरों और भालुओं को गले से लगाया, अपना मित्र बनाया और सब प्रकार से अपनाकर अपने समान ही बना लिया । ऐसे ही दीन-हीन और मलीन को राम जी अपना लिया करते हैं । ऐसी ही उनकी रीति और दीनों से प्रीति है । इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि ऐसा शीलनिधान स्वामी कहीं भी और कोई भी नहीं है -


तुलसी कहूँ न राम सो साहिब शीलनिधान ।


।।जय जय जय श्रीराम ।।

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शनिवार, 4 जुलाई 2015

जो खोजोगे सो पाओगे

जैसे आज वैज्ञानिक तरह-तरह के प्रयोग प्रयोगशालाओं में करते हैं । ठीक इसी तरह हमारे पूर्वज तरह-तरह के प्रयोग करते थे-

पहले भी होता था प्रयोग । शाला शरीर में जप, तप योग ।।
उद्देश्य था केवल आत्मविकास । भोग से रहते दूर उदास ।।


उस समय शरीर रुपी प्रयोगशाला में जप, तप, योग आदि जैसे प्रयोग होते थे । मन का नियमन किया जाता था । आत्मविकास ही एक मात्र उद्देश्य होता था । और भोगों से दूर रहते थे, उदासीन रहते थे । द्रव्य-पदार्थ के सारे गुण तब भी मौजूद थे । जिनकी खोज और प्रयोग करके वैज्ञानिकों ने आविष्कारों की झड़ी लगा दिया । इससे कहीं न कहीं भोगवाद को बल मिला है । और नियम, संयम में कमी आई है ।


  गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि इस संसार में सब कुछ है । बस खोजने की जरूरत है । प्रयास करने की जरूरत है । और लोग जो खोजेंगे उन्हें वह मिलेगा । 


अच्छाई खोजोगे तो अच्छाई मिलेगी । बुराई खोजोगे तो बुराई मिलेगी । ज्ञान खोजोगे तो ज्ञान मिलेगा । विज्ञान खोजोगे तो विज्ञान मिलेगा । और यदि भगवान को खोजोगे तो भगवान मिलेंगे । कर्म के अनुरूप फल आएगा । जो और जैसा प्राप्त करने के लिए कर्म होगा वैसा फल मिलना तय हैं । यह नियम है । 


पहले के लोग भगवान को खोजते थे तो उन्हें भगवान मिलते थे । आज के लोग भगवान को नहीं खोजते तो भगवान नहीं मिलते । भोग के साधन खोजते हैं और ये दिनों-दिन मिलते और बढते जाते हैं-

सकल पदारथ हैं जग माहीं । करम हीन नर पावत नाहीं ।।


-'भगवान की खोज'  नामक पुस्तक से उद्धरित अंश 


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रविवार, 14 जून 2015

भगवान की खोज: क्या भगवान का अस्तित्व है ?

     क्या भगवान का अस्तित्व है ?

आजकल लोग खासकर युवा अक्सर पूछते हैं, सोचते हैं कि क्या भगवान का अस्तित्व है ? लोग कहते हैं कि भगवान हैं तो दिखते क्यों नहीं ? भगवान दिखते नहीं हैं और हममें से किसी ने आज तक भगवान को देखा नहीं है । इसका मतलब तो यही होना चाहिए कि भगवान नहीं हैं । लोग ऐसे अनेकों प्रश्न करते हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । फिर भी हम सोचने के लिए और बिचार करने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र हैं । हमें सोचने और समझने का अधिकार है ।

   कभी-कभी युवा यह भी कहते हैं कि विज्ञान भी तो कहता है कि भगवान नहीं है । लेकिन ऐसा कहना भी गलत है । क्योंकि विज्ञान ऐसा कभी नहीं कहता । विज्ञान और आध्यात्म में बहुत गहरा सम्बंध है । और खासकर विज्ञान और सनातन धर्म के मूल तथ्यों में । यह नहीं भूलना चाहिए कि विज्ञान की भी अपनी एक सीमा है । क्योंकि विज्ञान मनुष्य की ही कल्पना और परिकल्पना का परिणाम है । और हम सभी जानते हैं कि मानव मष्तिष्क की भी एक सीमा है ।

  कभी-कभी कुछ वैज्ञानिक भले ही कह देते हों कि ईश्वर नहीं है । लेकिन उनका यह कथन उनकी किसी परिकल्पना के निष्कर्ष के फलस्वरूप आता है । और जैसा हमने कहा कि विज्ञान मनुष्य की ही कल्पना और परिकल्पना से आगे बढ़ता है । ऐसे में यदि हमारी परिकल्पना गलत हो तो गलत परिणाम आ जाते हैं । गलत निष्कर्ष निकल सकते हैं । गणित और विज्ञान से जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं वे परिकल्पना के अनुरूप आते हैं । गणित केवल इतना बताती है कि यदि परिकल्पना यह है तो निष्कर्ष यह होगा । लेकिन यह नहीं बता पाती कि आपकी परिकल्पना गलत थी अथवा सही । परिकल्पना परिवर्तित कर देने पर दूसरा परिवर्तित निष्कर्ष आ जाता है । अतः ऐसे कथन को प्रमाणिक नहीं माना जा सकता है ।

  संसार बहुत जटिल है । इसकी संरचना बहुत जटिल है । लोग और मुख्यतः नवयुवक यह बिल्कुल नहीं समझते कि वस्तुतः आज तक विज्ञान के द्वारा जो कुछ भी किया गया है, वह उसी व्यवस्था को समझने के प्रयास के दौरान ही सम्भव हो सका है । और आज भी विज्ञान उसी व्यवस्था को समझने का प्रयास कर रहा है ।

  इस जटिल व्यवस्था के आगे मानव बुद्धि बिल्कुल एक शिशु के समान है । जैसे छोटे बच्चे को कई खिलौने दे दिए जाय तो वह कभी एक से खेलता है और कभी दूसरे से और कभी तीसरे से...। वह यह निश्चित ही नहीं कर पाता कि किससे खेले और किससे न खेले । कभी-कभी तो वह सारे खिलौने एक साथ हाथ में लेना चाहता है । पर सभी पकड़ में ही नहीं आते । और जो आते हैं वो भी धीरे-धीरे गिरते जाते हैं ।

  ठीक ऐसे ही विज्ञान से जब हम कोई रहस्य समझते हैं या समझने का प्रयास करते हैं तो इसी दौरान दूसरा रहस्य आ जाता है जो हमें पहले से पता ही नहीं होता । इसी तरह तीसरा और चौथा .... । इस प्रकार खोज पर खोज जारी रहती है । पर रहस्य समाप्त ही नहीं होते । सोचने वाली बात यह है कि कितनी महान है यह व्यवस्था, जिसके कुछ अंश मात्र  समझ लेने से ही इतने सारे आविष्कार हो गए ।

     बहुत से लोग समझते और कहते हैं कि विज्ञान और आध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । विज्ञान भी सत्य के खोज में लगा है । और सत्य कभी नहीं बदलता । सत्य सदैव एक होता है । सत्य का स्वरूप बदल सकता है । उसे जानने और समझने के तरीके अलग हो सकते हैं ।

  अब हम मुख्य प्रश्न पर आते हैं । जहाँ तक हम सोच सकते हैं, देख सकते हैं, कल्पना कर सकते हैं इससे परे, इससे बहुत परे भगवान की सत्ता विराजमान है । हमारे पास जो भी साधन हैं वे भगवान को जानने और समझने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ।

  भगवान और उनके अस्तित्व का अनुभव किया जा सकता है । भगवान अनुभव गम्य ही हैं । भगवान दिखते नहीं हैं तथा हममें से किसी ने भगवान को नहीं देखा, इस आधार पर भगवान के अस्तित्व को न मानना गलत है । अवैज्ञानिक है ।

  हममें से किसी ने भी हवा को भी नहीं देखा है । परंतु हवा का अस्तित्व है । हवा का हम स्पर्श से अनुभव करते हैं । ठीक इसी तरह से हम भगवान का भी अनुभव कर सकते हैं । आत्मा अथवा प्राण भी तो नहीं दिखता । केवल प्रभाव दिखता है । प्राण निकलते ही सबकुछ समाप्त हो जाता है ।
  कोई भी संस्था हो अथवा प्रतिष्ठान हो तो वह बिना किसी के देखरेख के थोड़े चलता है । उसे चलाने वाला कोई न कोई होता है । यह सामान्य अनुभव की बात है ।

   हम सब देख रहे हैं कि प्रकृति के सारे काम नियत समय पर और सुचारू रूप से चल रहे हैं । जाड़ा, गर्मी, और बरसात एक के एक बाद एक नियत समय पर बारी-बारी से आते हैं । दिन के बाद रात होती है । सूरज रोज उगता है और अस्त होता है । चाँद और तारे रोज रात्रि की शोभा बढ़ाते हैं । हर जीवधारी की मृत्यु होती है । आदि । इससे ईश्वर का अनुभव होता है क्योंकि कोई भी व्यवस्था न अपने आप बनती है और न ही चलती है उसे बनाने और चलाने वाला कोई न कोई तो होता ही है ।

  वहीं दूसरी ओर आज का विज्ञान कहता और मानता है कि न दिखने वाली चीजों का भी अस्तित्व होता है । उदहारण के लिए द्रव्य के मूल कण नहीं दिखते हैं । आज तक किसी भी वैज्ञानिक ने नहीं देखा । और न ही किसी यंत्र से इन्हें देखा जा सकता है । फिर भी इनका अस्तित्व है । और इंही से मिलकर संसार बनता है । विज्ञान के अनुसार ये कण-कण में पाए जाते हैं । सचर-अचर सबमें । जैसा कि गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं कि राम जी कण-कण में हैं-‘सिय राममय सब जग जानी’ । इससे लगता है कि राम जी ही इन मूल कणों के रूप में द्रव्य में समाहित हैं ।

  इतना ही नहीं विज्ञान कहता है कि मूल कण का कोई आकार नहीं होता । ये आकार रहित हैं ।  मतलब ये निराकार हैं । फिर भी इनमें बहुत सी विशेषताएँ होती हैं । ये नहीं दिखते लेकिन इनका प्रभाव दिखता है । इंही से संसार बनता है । ऐसी ही बात तो संत और सदग्रन्थ भगवान के लिए भी कहते हैं । भगवान निराकार रूप में भी रहते हैं । भगवान नहीं दिखते लेकिन उनका प्रभाव दिखता है । हम जान बूझकर गांधारी जैसे आँख पर पट्टी बाँधे रहें वह बात दूसरी है ।

   विज्ञान कहता है कि संसार में दो तरह के द्रव्य होते है : श्वेत द्रव्य (White matter) और काला द्रव्य (Black Matter)। श्वेत द्रव्य में वे सभी चीजें आती हैं जो दृश्य हैं । जिन्हें हम देख सकते हैं । जैसे- मनुष्य, जानवर, सड़क, घर, गाँव, शहर, नदी, पर्वत, सूरज, चन्द्रमा और तारे आदि । और काला द्रव्य में वो चीजें आती हैं जो अदृश्य हैं । जिन्हें हम नहीं देख सकते । सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि विज्ञान कहता है कि संसार में काला द्रव्य ही अधिक है । श्वेत द्रव्य तो कुल द्रव्य का मात्र कुछ प्रतिशत ही है । 

 इस प्रकार से न दिखने वाली चीजों का भी अस्तित्व होता है । विज्ञान भी ऐसा मानता है ।

  लेकिन जिस तरह से हम दुनिया को देखते और समझते हैं, उस तरह से हम भगवान को न ही कभी देख सकेंगे और न ही समझ सकेंगे । अनेकों संतो, ऋषियों और मुनियों ने भगवान के अस्तित्व को माना है और अपना पूरा जीवन भगवान को ही समर्पित कर दिया है । और केवल इसलिए ही नहीं कि उन्होंने भी सुना था कि भगवान होते हैं । तथा उनके पहले के लोग भगवान को मानते थे । बल्कि मीराबाई जी, सूरदासजी और गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने कुछ सो वर्ष पूर्व ही भगवान को स्वयं जाना है, पहचाना है और देखा है ।

  दुनिया में कई घटनाएँ घटती रहती हैं । कोई ध्यान देता है। कई लोग ध्यान नहीं देते। कोई मानता है। कई लोग नहीं मानते। कई घटनाएँ हमारी बुद्धि और विज्ञान की पहुँच से परे होती हैं। केवल इसलिए ही उन्हें गलत मान लिया जाता है। जो कि गलत है। हमारी बुद्धि और विज्ञान से परे एक ऐसी सत्ता है जिससे असम्भव भी सम्भव हो सकता है और उसे अनुभव से समझा जा सकता है ।
 
 हम मानना ही न चाहें, जानना ही ना चाहें अथवा समझना ही न चाहें तो यह अलग बात है । लेकिन सत्य हमेशा सत्य ही रहता है । सत्य न ही हमारे समझने से बदलता है और न ही हमारे न समझने से । न ही हमारे मानने से और न ही हमारे न मानने से ।

                                             

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सोमवार, 1 जून 2015

उघरहिं अंत न होइ निबाहू: भले-बुरे का राज जरूर खुलता है

गोस्वामीतुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि भले और बुरे दोनों संसार में हैं । जैसे पाप और पुण्य, फूल और कांटा, देवता और राक्षस, तम और प्रकाश आदि । सबको व्रह्माजी ने ही उत्पन्न किया है । वेदों ने इनके गुण और दोष की विवेचना की है । बिना गुण और दोष जाने यह निश्चय करना कठिन हो जाता कि किसके साथ जाना है और किसके साथ नहीं जाना है ।


 कभी-कभी भले और बुरे में पहचान कर पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है । यदि कोई बुरा व्यक्ति भले व्यक्ति का स्वांग करे तो उसे सहसा कोई थोड़े पहचान सकता है । पहचानने में समय लगता है ।


  समय भले ही लगे लेकिन एक न एक दिन यह भेद खुल जाता है । जैसे मान लीजिए कोई अपना मित्र नहीं है । फिर भी वह मित्रता का स्वांग करता रहता है । आरंभ में हम भले ही उसे अपना मित्र-हितैषी मान लें । लेकिन वह दिन आ ही जाता है जब हमें पता चल जाता है कि यह मित्रता नहीं थी सिर्फ स्वांग था । लेकिन तब तक बहुत देर हो जाती है । इसलिए ही  सावधानी की जरूरत होती है ।


  यदि कोई भला है, अच्छा है लेकिन उसकी वेशभूषा ठीक नहीं है । आकर्षक नहीं है । अथवा उसकी अच्छाई सामने नहीं आ रही है तो हो सकता है आरंभ में लोग उसे सही न समझें । लेकिन एक दिन उसकी साधुता की विजय होती है । उसे जरूर सम्मान मिलता है ।


  ठीक ऐसे ही यदि कोई बुरा है, अच्छा नहीं है लेकिन वह लोगों को प्रभावित कर ले जाता है । लोगों को मिला लेता है । अपने को भला और अच्छा दिखाता है तो आरंभ में भले ही वह प्रशंसा का पात्र बन जाए । लोग उसे न समझ सकें । लेकिन एक दिन उसका भेद खुल ही जाता है ।


   गोस्वामी जी कहते हैं कि जिसके पास साधुता है उसे सम्मान मिलता ही है लेकिन जो असाधु होकर भी साधुता का ढोंग करता है उसका ढोंग एक न एक दिन उजागर हो ही जाता है । इसी तरह से हर रहस्य का एक न एक दिन खुलासा होता ही है । खासकर ऐसे रहस्य का जिसके बल पर कोई अनैतिक कार्य किया जाता है और दूसरों को सताया जाता है-



उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ।।


।। जय श्रीसीताराम ।।




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रविवार, 17 मई 2015

जो अपराध भगत का करई..............

संत और सदग्रंथ कहते हैं कि राम जी बड़े ही दयालु हैं । उनकी हर प्राणी पर कृपा होती है । लेकिन भक्तों पर कुछ विशेष ही कृपा सदैव रहती है । भगवान राम जी के भक्त सीधे-सरल और शांतिप्रिय होते हैं । न्यायप्रिय होते हैं ।



इसलिए किसी को भी भक्त से द्रोह नहीं करना चाहिए । अपने फायदे के लिए इनका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए । द्रोह तो किसी से भी नहीं करना चाहिए । और भक्त से तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए । भक्तजन से द्रोह अपना परिणाम अवश्य दिखाता है ।  यह अच्छा नहीं होता ।  सुख-शान्ति और प्रगति में बाधक होता है ।  


इसलिए ही कहा गया है कि संत का अपमान नहीं करना चाहिए । कोई यदि संत होकर संत जैसा व्यवहार नहीं करता तो इसका मतलब यह नहीं होता कि सभी संत ऐसे ही होते हैं । अतः यह भी नहीं कहना चाहिए कि आजकल संत कहाँ हैं ? एक बार हम अयोध्या से अपने घर जा रहे थे । कटरा रेलवे स्टेशन पर कुछ साधुजन बैठे थे । एक लड़का वहीं कुछ उल्टी-सीधी बात कर रहा था । एक पुलिस वाला भी वहीं बैठा था । उसने उस लड़के को बुलाया और बोला वहाँ बैठोगे ? वहाँ बैठ पाओगे । तुम्हें जमीन पर बैठना पड़े तो तुम्हारा कपड़ा गंदा हो जाएगा । जैसे ये लोग रहते हैं ऐसे एक दिन भी रहना पड़े तो पता चले । ऐसे ही बहुत सारी बातें उसने कही । और लड़का शरमाकर चला गया ।



  देवता लोग कई वर्षों तक हिरण्यकश्यप के अपराध से जलते रहे । लेकिन जब अपराध प्रहलाद पर होने लगा तो श्रीनरहरि प्रगट हो गए-


सुरन्ह सहेउ बहुकाल विषादा । नरहरि प्रगट किए प्रहलादा ।।



इसीतरह संत दुर्वाषा जी भगवान के भक्त अम्बरीश को जब शाप देना चाहा तो सुदर्शन चक्र प्रगट होकर उनका पीछा करने लगा । कोई मदद के लिए नहीं आया । स्वयं भगवान ने भी कह दिया कि मैं छमा नहीं कर सकता हूँ । क्योंकि आपने भक्त का अपराध किया है । इसलिए भक्त से ही यानी अम्बरीश से ही आपको छमा माँगनी चाहिए । बाद में अम्बरीश जी ने उन्हें छमा किया और चक्र वापस लौट गया ।



गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि यदि कोई राम जी का अपराधी हो तो राम जी उसे क्षमा कर देते हैं । लेकिन यदि कोई भक्त का अपराध करता है तो उसे इसका दंड किसी न किसी रूप में अवश्य भुगतना पड़ता है-



जो अपराध भगत का करई । राम रोष पावक सो जरई ।।




।। जय श्रीराम ।।


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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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