सीतानाथ रघुनाथ पाप ताप हारी । द्रवउ रघुवंशमणि धनुष वाण धारी ।। -विनयावली

एको देवो रामचन्द्रो व्रतमेकं तदर्चनम । मंत्रोअप्येकश्च तत्नाम शास्त्रं तद्ध्येव तत्स्तुतिः ।। -पद्मपुराण ।


दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी । देखउ रघुनाथ अब ओर हमारी ।। -विनयावली ।।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।
 
जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।
 
बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते ।  क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

  यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

   अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।
  
   दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

   भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

   अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

‘निर्मल मन सो जन मोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा’ ।।



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गुरुवार, 3 नवंबर 2011

भगवान की तलाश

सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

 जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

  जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।
  
   यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

  लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

  सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

  भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

   भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

   भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

 कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

 “प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े” ।
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सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

शिक्षक, गुरू और भगवान

    शिक्षक और गुरू में भेद होता है । प्रत्येक गुरू एक शिक्षक होता है । लेकिन प्रत्येक शिक्षक गुरू नहीं होता । सद्ग्रन्थों में जिस गुरू की चर्चा आती है, यदि उसे हम सद्गुरु कहें तो शिक्षक को शिक्षागुरू कह सकते हैं ।

शिक्षागुरु की श्रेणी में स्कूलों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के शिक्षक गण आते हैं । शिक्षागुरु का मुख्य काम शिक्षा देना होता है । ये स्कूलों द्वारा निर्धारित पाठयक्रमों की शिक्षा देते हैं । स्कूलों में प्रत्येक विषय के अलग-अलग शिक्षक होते हैं । जैसे-जैसे हम स्कूल बदलते हैं, हमारे शिक्षक भी बदलते जाते हैं । इस प्रकार अपने अध्ययन काल में हम अनेकों शिक्षागुरु पाते हैं ।

जब हम स्कूल में पढ़ने जाते हैं तो उस समय जो विषय हमें पढ़ना होता है । उसके विषय-बस्तु से हम अज्ञान होते हैं । शिक्षागुरु अपने ग्यान के प्रकाश से हमारे अज्ञान के अंधकार को मिटाकर सम्बन्धित बिषय के बिषय-बस्तु का ग्यान करा देते हैं । बिषय सीखकर हम परीक्षा उत्तीर्ण कर ले जाते हैं और जीवन में आगे बढ़ते हैं । शिक्षागुरु भी हमारे लिए आदरणीय हैं । क्योंकि ये हमें ज्ञान का प्रकाश देकर हमारे अज्ञान के अंधकार को मिटाते हैं ।

  सदगुरु वह है जो हमें सच्चिदानन्द आनन्दकन्द भगवान की शिक्षा दे ।  जो भगवान से मिलने का मार्ग प्रशस्त कर दे । भगवान को बता दे । ऐसी शिक्षा दे दे जिससे कम से कम भगवान हमारे अनुभव में आ जायें । हमारा मन भगवान का अनुरागी हो जाये । भगवान का ध्यान-मनन करने लगे । प्रत्येक व्यक्ति के लिए सदगुरु मुख्यतः एक ही होता है । लेकिन शिक्षागुरु एक के बाद एक बदलते रहते हैं ।

  हमारे और भगवान के बीच अज्ञान का पर्दा है । जिससे हम भगवान को देख नहीं पाते हैं अथवा समझ नहीं पाते हैं या अनुभव नहीं कर पाते हैं । सदगुरु अपने ज्ञान के प्रकाश से इस अज्ञान रुपी अंधकार के पर्दे को हटा कर भगवान को हमारे अनुभव में ला देता है ।
  

  सनातन धर्म कहता है कि मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य भगवान को प्राप्त करना ही है । बिभिन्न योनियों में में जन्मता हुआ प्राणी ईश्वरानुग्रह बश मानव जीवन धारण करता है । इस मानव जीवन का सही उपयोग भगवान को प्राप्त करने में लगाने से ही हो सकता है । शुभ कर्म , दया और परहित आदि इसमें सहायक होते हैं । हम भगवान से दूर हो गए हैं । जो हमें भगवान के पास ला दे । वही सदगुरु है । और ऐसा गुरू यानी सदगुरु परमादणीय है ।

  चूँकि हमारे जीवन का उद्देश्य भगवान से सानिध्य प्राप्त करना ही है और सदगुरु इसमें सहायक होता है । इसलिए ही गुरू यानी सदगुरु को साक्षात परमब्रह्म की यानी भगवान की उपमा दी गई है । क्योंकि ईश्वर के सानिध्य में किसी को वही ला सकेगा जो खुद ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर चुका होगा ।

  कबीरदासजी ने कहा है कि यदि गुरू और भगवान दोनों खड़े हों तो सबसे पहले गुरू को ही प्रणाम करना चाहिए । क्योंकि गुरू ने ही तो भगवान तक पहुँचने में हमारी सहायता की है । यहाँ पर कबीरदास जी ने गुरू की महत्ता इसलिए बताई है क्योंकि गुरू ने ही भगवान से हमारा सानिध्य कराया है । कहने का मतलब गुरू की महत्ता भगवान के कारण ही होती है ।

   सदगुरु श्रेष्ठ होते हैं । इसमें दो राय नहीं है । लेकिन सदगुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ समझना उचित नहीं है । सदगुरु श्रेष्ठ हैं लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि भगवान सर्वश्रेष्ठ हैं । भगवान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है । इसलिए गुरू भक्ति में मस्त होकर भगवान को कभी नहीं भूलना चाहिए और न ही भगवान का तिरिष्कार करना चाहिए ।

  यह कहना कि हम केवल गुरू यानी सदगुरु को मानते हैं । भगवान को नहीं मानते । गलत है । यह सनातन धर्म का मार्ग नहीं है । ऐसा गुरू जो हमें भगवान से दूर कर दे किसी काम का नहीं होता ।
  यदि आपको सदगुरु और भगवान दोनों मिल जायें और दोनों में से आपको किसी एक को चुनना हो तो आप किसे चुनेगें ? कुछ लोग कह सकते हैं सदगुरु को और कुछ कह सकते हैं भगवान को ।
  

  लेकिन इस चयन में हमें यह देखना चाहिए कि हमारा सदगुरु भगवान के मिलने में बाधक है अथवा सहायक । यदि बाधक बन रहा हो तो ऐसे सदगुरु को तुरंत त्याग देना चाहिए । सनातन धर्म और सुसंतो का भी यही कहना है । इसे हम एक उदाहरण देकर समझायेंगे ।

   इस कलिकाल के संतो में से यदि सुसंत का उदाहरण खोजना हो तो गोस्वामी तुलसीदास जी का नाम अवश्य सामने आएगा । तुलसीदासजी ने ऐसे माता-पिता, भाई, पति आदि और यहाँ तक सदगुरु को भी त्यागने की सलाह दी है जिसको श्रीसीतारामजी प्रिय न हों अथवा श्रीसीतारामजी से मिलने में बाधक हों ।

   श्रीमद्भागवत और वामन पुराण में राजा वलि ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने भगवान के सानिध्य में बाधक अपने गुरू को भी त्याग दिया था । गुरू को त्यागकर वलि ने भगवान को प्राप्त किया था ।
  
   लेकिन यदि हमारा सदगुरू भगवान के मिलने में बाधक नहीं है बल्कि सहायक है तो ऐसे सदगुरु को त्याग देने से भगवान कभी नहीं मिलेंगे । वे स्वयं ही दूर हो जायेंगे ।
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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

सनातन धर्म और दहेज

जब लड़की के माता-पिता अपनी सामर्थ्यानुसार हँसी-खुशी बिना किसी माँग और दबाव के लड़के वालों को कुछ देते हैं तो यह आधुनिक दहेज की श्रेणी में विल्कुल नहीं आता । इसे हम उपहार भी कह सकते हैं । इस तरह के लेन-देन से समाज में न ही कोई समस्या आती है और न ही आने की संभावना है । परंतु कालंतर में यह लेन-देन दहेज-उपहार नहीं रह गया । बल्कि दहेज-कमाई हो गया । दहेज के नाम पर लूट-खसोट होने लगी । वर पक्ष इसे अपना अधिकार समझने लगा । इससे समाज को भारी क्षति हुई ।

   सनातन धर्म इस तरह दहेज के नाम पर कमाई अथवा लूट-खसोट की अनुमति नहीं देता । दहेज माँगना अनुचित है । दहेज लेना अधिकार नहीं है । सनातन धर्म के किसी भी ग्रन्थ में यह नहीं मिलेगा कि किसी ने विवाह करने के लिए कुछ माँगा हो । हाँ कन्या पक्ष चाहे तो अपने मर्जी से कुछ दे सकता है । इसकी अनुमति है और इसका वर्णन भी आता है ।

  सनातन धर्म के अनुसार शादी-विवाह एक पवित्र बंधन है । संस्कार है । धर्म है । समझौता नहीं । व्यापार नहीं । लेकिन आज विवाह उच्च कोटि का व्यापार बन गया है । लोग सोचते हैं कि कन्या पक्ष से जितना वसूल लो वही कम है । यह चिंताजनक स्थिति है । और सनातन धर्म के सर्वथा प्रतिकूल है ।

  सनातन धर्म के अनुसार कन्या पक्ष और वर पक्ष में कोई ऊँचा अथवा नीचा नहीं होता । मतलब वर पक्ष द्वारा किसी भी तरह लड़की वालों को अपमानित नहीं किया जाना चाहिए । जबकि आजकल लड़की वालों को नीचा दिखाना, लड़के वाले अपना अधिकार समझने लगे हैं । यह स्थिति सोचनीय ही नहीं बल्कि मानवता को लजाने वाली है । गोस्वामी तुलसीदासजी श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम के विवाह के प्रसंग में लिखते हैं-  

“पुनि भानुकुल भूषन सकल सनमान निधि समधी किये ।
कहि जात नहि विनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिये” ।।

 राजा दशरथ ने जनकजी को इतना सम्मान दिया कि वे सम्मान से परिपूर्ण सम्मान के सागर ही हो गए । यह है, हमारे सनातन धर्म की परम्परा, शिक्षा । लेकिन आज हम सब अपने को सनातन धर्म के सिद्धांतों, नियमों, जीवन-मूल्यों से बहुत दूर कर चुके हैं ।

  आज हम सब समाज में क्या-क्या नहीं देखते ? क्या बिडम्बना है कि माँ-बाप वर्षों से अपने   सन्तान के विवाह का सपना बुनते हैं ? सबके मन में अच्छे घर-वर की इच्छा घर किये रहती है । लड़के के माँ-बाप बहू को लाने, देखने के लिए कितने लालायित रहते हैं ? विवाह के समय का हर्षोल्लास देखते ही बनता है । क्या यह सब महज दिखावा होता है ? क्योंकि चंद रुपयों के लिए, दहेज के लिए लोग उसी बहू का जीवन नर्क बना देते हैं । जला देते हैं, मार डालते हैं । अथवा इतना मजबूर कर देते हैं कि लड़की स्वतः ऐसे कदम उठा लेती है ।

  ये सब उन कर्मों में से है, जो मानवता तो क्या पशुता को भी मुँह छिपाने के लिए मजबूर कर देते हैं । सच में हमें मानव बने रहने के लिए सनातन धर्म के अनुसार ही चलना होगा  । अन्यथा हम मानव कहलाने का भी अधिकार खो देंगे । 


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शनिवार, 6 अगस्त 2011

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज: न भूतो न भविष्यति की उपमा वाले संत

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज इस कलिकाल में एक ऐसे संत हो गए हैं, जिनके लिए कम से कम इस कलियुग में ‘न भूतो न भविष्यति’ की उपमा अतिशयोक्ति नहीं है । सच में उनके जैसा भक्त, संत व कवि होना मुश्किल ही है । ये केवल संत, भक्त और कवि ही नहीं बल्कि बहुत ही बड़े बिचारक, दार्शनिक, ज्योतिषविद, समाज शास्त्री व भविष्यवेत्ता इत्यादि  थे ।

  ये जन्म से ही विलक्षण थे । जन्म के समय पाँच वर्ष के बालक के समान थे । जन्मते ही रोने की जगह ‘राम-राम’ बोलने के कारण ही ये रामबोला कहलाये थे । कहा जाता है कि बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के बाद दासी ने और बाद में माता पार्वती ने इनका लालन-पालन किया । बचपन में ही भगवान श्रीराम के प्रति इनका अनुराग हो गया था जो दिन-दिन बढ़ता ही गया और रामबोला गोस्वामी तुलसीदास हो गए ।

    तुलसीदास जी को ‘राम नाम’ से बहुत अनुराग था । नाम जप की महिमा इन्होंने मुक्त कंठ से गाई है । ‘राम’ नाम के दो वर्ण ‘र’ और ‘म’ तुलसीदास के लिए माता-पिता के समान थे । राम जी से अधिक प्रेम तुलसीदास जी को ‘राम नाम’ से था । सबको इन्होंने ‘राम नाम’ जप करने की शिक्षा दी है ।
  
  आज तक कई रामायण लिखी जा चुकी है । बाल्मीकि जी ने, ब्यास जी ने हनुमानजी ने व भगवान शंकर ने रामायण की रचना की है । इस कलियुग में भी अनेकानेक रामायण लिखी जा चुकी हैं । लेकिन जितना आदर-मान तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस को मिला है, उतना अन्य किसी को नहीं । कलियुग में लिखी गई कई रामायण ऐसी भी हैं, जिनका नाम तक लोग नहीं जानते । लेकिन श्रीरामचरितमानस अद्वितीय ग्रन्थ है ।  ग्रन्थ ही नहीं, इस कलियुग में भगवान श्रीराम का ग्रन्थावतार है ।  
 गोस्वामीजी का कहना था कि कोई भी चीज कितनी ही प्रतिष्ठित, महत्वपूर्ण, सुंदर इत्यादि क्यों न हो, लेकिन यदि उससे लोक-कल्याण नहीं होता तो वह व्यर्थ है । कोई भी चीज तभी सार्थक है, जब उससे जन-जन (प्राणिमात्र) का कल्याण यानी लोक कल्याण हो ।

   मानव देह धरने  का समुचित लाभ यह है कि यह परहित में लगे । परहित से बड़ा धर्म नहीं है । किसी को पीड़ा मत पहुँचाओ । परपीड़ा से बढ़कर दूसरा पाप नहीं है । काम वही सार्थक है, जिससे लोगों को लाभ हो ।

  अच्छी रचना वही है, जिसका लाभ अधिक से अधिक लोग उठा सकें । बहुत ही सुंदर, उच्चकोटि की भाषा में लिखी रचना यदि लोक कल्याण न कर सके तो क्या फायदा ? अतः वर्तमान और भविष्य के समाज को ध्यान में रखकर ग्रामीण भाषा में ही एक ऐसी रचना क्यों न लिखी जाय जो लोगों के लिए पथप्रदर्शक हो । लोगों को सच्ची राह दिखा सके । जन मानस को आन्दोलित कर सके  । श्रीराम चरण में प्रीति जगा सके । स्वान्तः सुखाय के साथ श्रीरामचरितमानस की रचना में यह भाव भी था ।

   श्रीरामचरितमानस से अनेकों लोगों में कविता करने का भाव जाग गया । अर्थात कवि बन गए । कितने लोग इसे पढ़कर भक्तिभाव को प्राप्त हुए । कितने ही लोग इसे पढ़कर सुख-शांति का लाभ करते हैं । कितने ही संत-महात्मा इससे प्रेरित होकर ध्यान मग्न होते हैं । इन्ही सब कारणों से लोग इसे पंचम वेद की संज्ञा देते हैं । सच है-

गुरु तुलसीदास जो श्रीरामचरितमानस न गाते ।
परम मनोहर सहज कथा बिनु लोग अधिक भरमाते ।।
भवसागर से तरने का सरल-सुगम मारग न सुझाते ।
साधु, सुजन, जन प्रेणादायक सुंदर उक्ति कहाँ पाते ?
बरबस ही लोगों के मुख में पावन छंद कहाँ आते ?
सच में मानस न होती तो धरम-करम बहु मिट जाते ।।

   तुलसीदास जी ने मानव समाज को बहुत कुछ दिया इनकी शिक्षाएं सनातन धर्म को जीवटता प्रदान करने वाली हैं और प्राणिमात्र को दुख के अथाह सागर से निकालकर सुखसागर भगवान श्रीराम तक ले जाने वाली हैं  

   तुलसीदास जी का जीवन आदर्श जन-जन के लिए अनुकरणीय है, चाहे वह समाज का कोई भी व्यक्ति क्यों न हो । यदि गोस्वामी तुलसीदास जी के बताए रास्ते पर चला जाय, तो कोई भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र दुखी नहीं रह सकता ।  सच में उस राष्ट्र में रामराज्य जैसा राज आ जायेगा । हर समस्या का निदान इनकी शिक्षाओं में है, जो इनके ग्रंथों में संग्रहीत हैं । यह अतिशयोक्ति नहीं है ।  

  गोस्वामी जी ने मानव को मानव बने रहने का पाठ सिखाया । धर्म-अधर्म और पाप-पुण्य का सही मतलब समझाया । मानव, दानव कैसे बन जाता है, इसको भी बताया और सावधान भी किया ।

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सनातन धर्म के संक्रमण काल में हुए थे । इन्होंने अनेकानेक ग्रन्थ रचकर लोगों को सरल भाषा में सनातन धर्म के मर्म को समझाया । भक्ति, ग्यान और वैराग्य की त्रिवेणी से जन-जन को नहलाकर ‘राम नाम’ के मंत्र से सबमें (सनातनियों में) नव जीवन का संचार किया । इनके ग्रन्थों से सनातन धर्म को बहुत बल मिला है और आगे भी मिलता ही रहेगा ।
  
  गोस्वामीजी बहुत ही उदार व विनम्र थे । कुटिया में रहते थे और कोई भी चेला-चपाटी नहीं बनाए थे । अपने को तुलसीदास यानी भगवान की दासी तुलसी का दास अर्थात भगवान के दास का दास समझते थे । इन्होंने कोई बहुत बड़ा वाक्य सरीखे नाम की आवश्यकता नहीं समझी । न ही ये अपने नाम के पहले श्री श्री १००८ आदि लगवाते थे न ही ये सब इन्हें पसंद था । बस ये तो राम गुलाम थे । जो रामजी का सच्चा गुलाम होगा वह लोक की सिद्धी अथवा प्रसिद्धी का क्या करेगा ? ये कहते थे कि कौन क्या है, कैसा है इत्यादि रामजी बिना बताए ही जानते हैं । वे केवल सच्चे प्रेम के भूंखे हैं । यदि उन्हें न रिझाया जा सका तो लोक को रिझाकर भी क्या मिलेगा ? सच है –

“प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए । कहउ कौन सिधि लोक रिझाये” ।।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

भगवान श्रीराम की सरलता




  जितने 

भी गुणों की हम कल्पना कर सकते हैं और इनसे भी परे जितने भी गुण हैं भगवान श्रीराम उन सबके साक्षात प्रतिमूर्ति ही हैं जब शेष, महेश, गणेश, नारद, शारद और वेद आदि अन्यान्य विशारद भी जिनके गुणगनों का बखान नहीं कर सकते; तब  हम अल्पज्ञ मानव उनके गुणों का बखान किस प्रकार कर सकते हैं हमारे द्वारा उनके गुणों के बारे में कुछ कहना सीप द्वारा सागर उलीचने का प्रयास करने जैसा ही है

   भगवान श्रीराम जैसा सरलतम देवी, देवता कोई है ही नहीं । लाख खोजो कोई भी और कहीं भी नहीं मिलेगा । जितने भी धर्म-ग्रन्थ हैं जैसे वेद, शास्त्र, उपनिषद, पुराण इत्यादि, इन सबमें गोते लगा-लगाकर देखा जाय फिर भी अंत में यही निष्कर्ष निकलेगा कि जैसे भगवान श्रीराम अन्य सभी गुणों में अद्वितीय हैं । ठीक वैसे ही सरलता में भी ।

 
भगवान श्रीरामजी बड़े ही शर्मीले, लजीले, सरल, संकोची व शांत स्वभाव के हैं । यदि कोई उन्हें प्रेमपूर्वक (छल-कपट रहित होकर) प्रणाम भी कर ले तो सकुचा जाते हैं, रीझ जाते हैं     

  वनवास की लीला में रामजी और मुनि लोग परस्पर अनुनय-विनय करते हुए देखे जाते हैं । गोस्वामी जी के शब्दों में जब मुनि लोग उनके सहज स्वरूप (परमात्म स्वरूप ) का निरूपण करने लगते हैं तो श्रीरामजी लज्जा-संकोच के मारे सिर झुका लेते हैं । लेकिन जब केवट और बंदर-भालू रामजी को मित्र एवं भाई कहते हैं, तो अपनी बड़ाई मानते हैं ।

 


जिसको कहीं भी किसी के द्वारा कोई  आदर-सत्कार नहीं मिलता । श्रीराम जी उसका भी आदर-सत्कार करते हैं । जिसको लोग पास फटकने तक नहीं देते । उसकी बाँह पकड़ कर पास बिठाते हैं और गले से लगा लेते हैं । जिसकी कोई एक बात भी नहीं सुनता, श्रीरामजी बड़े प्रेम से उसकी पूरी गाथा सुन डालते हैं ।

 श्रीराम जी के अलावा और कोई दूसरा नहीं है जो बानर और भालुओं को भी अपना मित्र बनाया हो । आमिष भोगी गिद्ध का पिता के समान श्राद्ध किया हो और भिलनी को माता का सम्मान दिया हो । ऐसा करने वाले एकमात्र श्रीराम जी ही हैं । केवट को लोग छूते नहीं थे । लेकिन श्रीरामजी ने उसे अपने ह्रदय से लगाया । इसी तरह अन्य कोलों, किरातों और भीलों आदि को भी ।

और तो और चाहे राम-राम कहो या ‘मरा-मरा’ राम जी प्रसन्न हो जाते हैं । कहने का मतलब उल्टा-सीधा जैसे भी नाम लेने से खुश हो जाते हैं । दरअसल वे मान-अमान से परे हैं । लेकिन दूसरों को सदा मान और बड़ाई देते हैं । और क्रोध करना तो वे जानते ही नहीं ।

 गोस्वामी जी कहते हैं कि रामजी ऐसे देवता हैं जो ज्यादा पूजा-पाठ की अपेक्षा नहीं रखते । सिर्फ नाम लेने से प्रसन्न होने वाले हैं । केवल प्रेम और छल कपट रहित होकर कोई उनके पास चला जाय अथवा उन्हें पुकारे कि नाथ आपके सिवा मेरा कोई नहीं है । फिर तो वह चाहे जितना बड़ा पापी, क्रूर, छली, कपटी, कामी, क्रोधी इत्यादि कुछ भी और कोई भी क्यों न हो । उसे अपना लेते हैं । और जिसे एक बार अपना लेते हैं । उसे फिर कभी नहीं छोड़ते । गोस्वामी जी कहते हैं कि जब मुझे अपना लिए तो औरों की बात ही क्या है ?

कहाँ तक कहें ?  वर्षों से वर्षा, शीत और आतप आदि सहती हुई बेचारी अहिल्या निर्जन स्थान में पड़ी थी । श्रीरामजी के अलावा उसे इस बिपति से छुड़ाने वाला और दूजा कोई नहीं था । रामजी ने अहिल्या का उद्धार किया । अहिल्या हर्षातिरेक में पुनः अपने पति को प्राप्त हो गई । इतना बड़ा उपकार करके भी राम जी अपने संकोची व सरल स्वभाव के चलते उलटा खुद पश्चाताप करने लगे कि मुनि पत्नी को पैर क्यों लगाना पड़ा ।

परशुराम जी धनुष भंग सुनकर आग बबूला हो रहे थे । जो पाए उलटा-सीधा बोलते गए । लेकिन सर्वशक्तिमान होते हुए भी रामजी हाथ ही जोड़ते रहे । उन्हें मनाते रहे ।

माता कैकेयी कुचाल की वजह से लजाती थीं । अन्य लोग यहाँ तक भरत भी उन्हें दोषी समझ रहे थे । लेकिन रामजी पहले की भाँति ही उनका सम्मान करते रहे । सभी माताओं में पहले उन्हीं का चरण स्पर्श करते हैं । उनकी हर इच्छा पूरी करते रहे ।

  विभीषण का राजतिलक करते हुए श्रीरामजी ने कहा कि यद्यपि आपकी इच्छा नहीं है । फिर भी मैं आपको लंका का राज्य देना चाहता हूँ । गोस्वामीजी कहते हैं कि जिस लंका का राज्य रावण को भगवान शंकर ने उसे सिर काटकर चढ़ाने पर दिया था । वही राज्य रामजी विभीषण को सकुचा कर दिए । रामजी जैसा दाता भला और कौन हो सकता है ?

  सरलता और सबलता दोनों एक साथ होना थोड़ा मुश्किल होता है । परंतु रामजी पूर्ण समर्थ, सबल होते हुए भी परम सरल हैं । सब पर दया दृष्टि रखने वाले हैं । चाहे कोई उनका अपराधी ही क्यों न हो ?
 
  श्रीरामजी ऐसे स्वामी है जो अपने को अपने सेवकों का ऋणी समझते रहते हैं । भला ऐसा सरल, संकोची अद्वितीय स्वामी और कौन हो सकता है ? भक्तों के लिए किये गए उपकार को तो भूल जाते हैं । लेकिन भक्त ने यदि कुछ कर दिया अथवा किसी ने प्रेम से प्रणाम ही कर लिया तो उसी के होके रह जाते हैं । हनुमान जी से तो रामजी ने यहाँ तक कह दिया कि हम तुमसे उरिन ही नहीं हो सकते । हनुमान जी के हाथ राम जी बिक गए । उनके वश में हो गये ।
   
    शंकर जी राम-राम ही जपते रहते हैं । रामजी की कथा खुद सुनाते भी हैं और सुनते भी हैं । रामजी को अपना स्वामी मानते हैं । लेकिन रामजी अपने सरल व संकोची स्वभाव के चलते शंकर जी को अपना स्वामी मानते हैं ।

 जब लोग उनके द्वारा भक्तों पर किये गए दया और उपकार की चर्चा करते हैं, तो रामजी सकुचाते हैं । लेकिन अपने भक्तों का गुणगान स्वयं भी करते हैं और सुनकर भी बहुत प्रसन्न होते हैं । कहाँ तक और क्या–क्या बताएँ ? अंत में यही कहा जा सकता है -

       अति कोमल रघुवीर सुभाऊ । यद्यपि अखिल लोक कर राऊ ।।





बुधवार, 1 जून 2011

प्रलय की भविष्यवाणियाँ: एक भ्रामक प्रचार

प्रलय का मतलब महाविनाश समझा जाता है । जिसमें पृथ्वी पर सभी जीवधारियों का अंत हो जाता है । और 2012 में एक ऐसी ही प्रलय की सम्भावना ब्यक्त की जा रही है । लेकिन सनातन धर्म के आधार पर इस परिकल्पना को मात्र एक भ्रामक प्रचार करार दिया जा सकता है ।

  सनातनधर्म एक ऐसा धर्म है जो अनादि काल से चलता आ रहा है । इसका कोई प्रवर्तक नहीं है । सनातन धर्म में अवतार होते हैं, जो कोई धर्म चलाने नहीं आते । बल्कि धर्म बचाने आते हैं । और यह शाश्वत धर्म युगों-युगों से इस धरा धाम पर सुशोभित है । इसके दर्शन से न केवल भारतीय बल्कि पाश्चात्य दार्शनिक, बिचारक और वैज्ञानिक भी प्रभावित हुए हैं ।

    ब्रम्हांड के उत्पत्ति का जो वर्णन सनातन धर्म में मिलता है वह आधुनिक विज्ञान के बिग बैंग और बिग क्रैंच सिद्धांतों से काफी मिलता जुलता है । इसी तरह ब्रम्हांड के बिनाश की जो सम्भावनाएं आधुनिक विज्ञान से प्रतिपादित की जाती हैं, उन्हें सनातन धर्म काफी हद तक अपने में समाये हुए है ।

 सनातन धर्म में कुल चार युग: सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग माने जाते हैं । और इस समय कलियुग चल रहा है । हर युग में चार चरण होते हैं । अभी कलयुग का प्रथम चरण ही चल रहा है ।

 कलियुग के प्रमुख लक्षणों में असत्य, अन्याय, अनीति, चोरी, घूसखोरी, बरजोरी आदि शामिल हैं । मनुष्यों व पेड़ पौधों आदि के आकार (लम्बाई, चौड़ाई) और आयु का कम हो जाना, बचपन में ही बालों का सफेद होना, शील-गुण को छोड़कर स्त्री-पुरुष के सहमति मात्र से रति सुख के लिए विवाह, स्त्रियों  का आभूषण और वस्त्र से क्षीण होना, गंगा-गोमती-गो तथा माता-पिता का अनादर, धनवान को आदर मान और साधुओं में बिलासिता के प्रति रुझान आदि कहे गए हैं । इसके अतिरिक्त पुराणों में अनेकानेक लक्षण कहे गए हैं । जो दृष्टिगोचर भी हो रहे हैं । कलियुग अभी एक चरण से ही ब्याप्त है । तो हम इतना देख रहे हैं । और जब यह चारो चरणों से ब्याप्त हो जायेगा तो त्राहि-त्राहि मच जायेगी । और भगवान का धरा धाम पर अवतरण होगा । तब फिर से धर्म और सत्य की स्थापना होगी ।

सनातन धर्म के अनुसार कुल चार तरह की प्रलय होती है । लेकिन कोई भी प्रलय किसी युग के मध्य में नहीं आती ।
  
कलियुग का अभी बत्तीस हजार साल भी नहीं बीता है । और इसमें कुल चार लाख बत्तीस हजार वर्ष हैं । और इस बीच कोई भी प्रलय (पूर्ण विनाश) नहीं आ सकती (नहीं हो सकता ) ।

   एक चतुर्युगी बीतने पर प्रलय नहीं होती बल्कि धरती का कुछ भाग ही विनाश को प्राप्त होता है । जबकि इसमें भी अभी कई लाख वर्ष बीतना शेष है । एक हजार चतुर्युगी बीत जाने पर प्रलय होती है । अतः सन 2012 की प्रलय केवल एक भ्रामक प्रचार है ।  धरती पर महाविनाश अभी कई लाख वर्षों तक नहीं होगा ।

  पूर्व में भी प्राकृतिक आपदाएँ आती रही हैं । और आगे भी आती रहेंगी । लेकिन इन्हें प्रलय की भविष्यवाणियों से जोड़कर देखना गलत होगा । प्रलय मतलब पूर्णबिनाश अभी बहुत दूर है । आँधी-तूफान, भूकम्प, चक्रवात, सुनामी, ग्रहीय हलचल, नाभकीय विस्फोट, सूखा और बाढ़ आदि तो बहुत देखने में आयेंगे । लेकिन पूर्ण विनाश अभी बहुत दूर है ।
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शुक्रवार, 20 मई 2011

राम बिना आराम कहाँ ?

सुसंत 

और सदग्रन्थ कहते हैं कि यदि आराम चाहते हो, तो राम को चाहो । बिना राम के आराम नहीं मिलता । लेकिन हम सभी आराम तो चाहते हैं, परन्तु राम को नहीं चाहते । इसलिए ही वास्तविक आराम नहीं मिलता । बिषयों का सुख स्थायी आराम नहीं देता । बाहरी और आंतरिक सुख में बहुत फर्क होता है । सुसंत बाहर से भले ही कंगाल दिखें पर अंदर से सुखसागर में गोते लगा रहे होते हैं ।

   मानव मन के कहने पर ही सब कुछ करता है । यह मन ही है जो किसी को आराम से बैठने नहीं देता । क्योंकि यह हमेशा दौड़ता ही रहता है । कभी विश्राम नहीं करता । और जब तक मन विश्राम नहीं करेगा । रामजी की ओर दौड़ने के लिए इसके पास समय ही नहीं रहेगा । और जब तक रामजी की ओर दौड़ेगा नहीं । वास्तविक आराम नहीं मिलेगा ।

   जब तक मन को आराम नहीं मिलेगा । तब तक हमें भी आराम मिलने वाला नहीं है । मन को आराम मन की गति में विराम लगा कर ही दिया जा सकता है । जब किसी के पास काम होता है तो वह विश्राम थोड़े करता है । कहता है दम मारने को समय नहीं है । यह कर लिया और वह करना है । इसके बाद वह करने जाना है । क्योंकि बहुत काम है । इसीतरह जब तक मन में काम है । विश्राम कहाँ ? और बिना विश्राम राम कहाँ ? और बिना राम आराम कहाँ ?

 मन के विश्राम से यहाँ मतलब बिषयों की ओर जाने से विराम लगाने से है ।  लेकिन मन आसानी से मानने वाला तो है नहीं ।  आखिर तब किया क्या जाय ? इसे समझाना चाहिए ।  फिर भी न माने तो जोर-जबरदस्ती भी करना चाहिए ।  इसे प्रलोभन देना चाहिए ।  बताना चाहिए कि संसार के रस तो बहुत पी चुके थोड़ा राम नाम रस भी पीकर देखो । किसी भी तरह इसे राम जी से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए ।  जबरदस्ती ही सही राम-राम करना शुरू कर देना चाहिए । रामजी का ध्यान करना चाहिए ।  राम जी के गुणगणों को इसे बार-बार सुनाना चाहिए । यह सुनना चाहे अथवा नहीं । और क्या तरीका हो सकता है ? रस्सी से तो इसे बाँधा नहीं जा सकता । धीरे-धीरे जब इसे रामजी के गुणगणों और राम नाम से अनुराग होने लगेगा तो लोभ, मोह, काम, क्रोधादि स्वतः रामजी की कृपा से दूर होने लगेंगे । जितना अनुराग बढ़ेगा उतना ही बिराग भी बढ़ेगा ।
     

   सच में संसार में क्षणिक आराम देने वाली तो बहुत चीजें हैं । लेकिन इनसे मन संतुष्ट कहाँ होता है ? मन वास्तविक सुख यानी आराम चाहता है । परन्तु सच्चा सुख इसे मिलता ही नहीं । इसलिए मन रुपी मृग की तृष्णा ज्यों की त्यों बनी रहती है । और यह चक्कर काटता रहता है ।
 
  जब हम श्रम से थकें होते हैं तो हमें विश्राम करने से आराम मिलता है । परन्तु जब फिर से श्रम करने लग जाते हैं । पुनः विश्राम की जरूरत पड़ती है । जब हम भूंखे होते हैं तो हमें भोजन से आराम मिलता है । परन्तु कुछ समय बाद फिर भूँख लग जाती है । इसी तरह मन को स्थायी सुख नहीं मिल पाता । और इसकी तृष्णा बनी ही रहती है । तृष्णा लेकर पैदा हुए, जिए और फिर तृष्णा लेकर ही चले गए । इसी से भटकना पड़ता है । तृष्णा न रहे तो दुख भी न रहे । इससे छुटुकारा केवल रामजी की कृपा से ही मिल सकता है । नहीं तो बिषयों से बिराग आसानी से नहीं होता ।

  जब हमारे मन की कोई कामना पूरी होती है तो हमे क्षणिक सुख यानी आराम मिलता है । लेकिन एक ही कामना तो होती नहीं । एक के बाद एक और हर कामना पूरी होने से ही आराम मिल सकता है । नहीं तो मन खिन्न रहेगा ही । कामनाओं का कोई अंत नहीं होता । मन की तृष्णा आसानी से मिटने वाली नहीं है ।  

आखिर यह स्थिति क्यों बनी हुई है ?  मन की तृष्णा समाप्त क्यों नहीं होती ? सारे भोग मिल जाएँ तो उन्हें भोगकर भी मन पूर्णरूपेण सुखी  क्यों नहीं होता ?

   क्योंकि मन इन छोटे-मोटे संसारिक सुखों से तृप्त होने वाला नहीं है । तृप्त कब होगा जब यह पूर्ण रूपेण सुखसागर में गोते लगायेगा । और सुखसागर हैं राम जी । अतः बिना राम के काम बनने वाला नहीं है । राम जी सभी सुखों के मूल हैं । बिना उनके हमें वास्तविक सुख यानी आराम नहीं मिल सकता ।

 राम जी तो कण-कण में रमते हैं और इसलिए ही राम कहलाते हैं । फिर भी जब तक उन्हें बुलाया न जाय, उनका स्मरण न किया जाय वे नहीं आते । और जब तक मानव मन राम से दूर रहता है अर्थात राम से निकटता स्थापित नहीं करता । उसे सच्चा यानी वास्तविक आराम नहीं मिलता । जब राम के लिए मन में चाह उत्पन्न हो जाती है अर्थात जब मन राम का स्मरण करने लगता है तो राम जी पास आ जाते हैं । और आराम मिल जाता है । सच्चा आराम रामजी के आने से ही मिलता है ।

   रामजी आ जाएँ तो आराम और अगर दूर चलें जाएँ तो इसे ही बेराम होना कहते हैं । राम को बुला लिया यानी उनका स्मरण किया या करने लगे तो राम के आने से आराम मिल जाता है ।  किसी की तबियत खराब हो जाय तो प्रायः लोग कहते हैं कि वे बेराम हैं । मतलब इन्होंने रामजी  को दूर कर (बिल्कुल भुला) दिया है और इसलिए इनसे  रामजी बहुत दूर चले गए हैं । जब राम जी दूर चले गए तो आराम कैसे होगा ?  स्वास्थ्य में सुधार होने पर कहते हैं कि अब आराम है । मतलब रामजी आ गए हैं और इसलिए आराम मिल गया इसलिए राम जी को पास रखना चाहिए । यानी उन्हें भुलाना नहीं चाहिए जिससे बेराम होने की स्थिति ही न आये ।
    
       मानो या न मानो बेराम होना भी एक बीमारी है  भले ही लोगों व अपनी दृष्टि में हम स्वस्थ व आराम में दिखें । लेकिन वस्तुतः हम बीमार होते हैं  यह एक ऐसी आंतरिक बीमारी है  जिसका इलाज किसी भी ज्ञात आधुनिक चिकित्सा पद्धति में नहीं है । इसका इलाज किसी सद्गुर या सुसंत के द्वारा ही सम्भव हो सकता है । ये आसानी से न मिल सकें तो स्वतः राम-राम करते हुए रामजी का गुणगान पढ़ते व सुनते हुए हम इस बीमारी से बच सकते हैं । आज के समय में अधिकांश लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं  परंतु भ्रम, अहंकार, मान, गुमान और अज्ञान आदि कुपथ्यों के वशीभूत होकर पथ्य को त्यागकर स्वस्थ व आराम में होने के वहम में जिए जा रहे हैं  
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शनिवार, 14 मई 2011

अहिल्या उद्धार


अहिल्या 
पंच देव कन्याओं में से एक हैं । ये अनुपम सुन्दरी और गौतम मुनि की प्रिय पत्नी व पतिव्रता थीं । इंद्र पूर्णतयः दोषी थे, इसलिए उन्हें मुनि ने तत्काल शाप दे दिया । फिर सोचा कि इतने दिनों से साथ में रहकर भी अहिल्या मेरे स्वभाव को नहीं जान सकी । व्रह्म बेला की रोज की मेरी जो दिनचर्या है, उसके प्रतिकूल आचरण न ही मैंने कभी किया और न ही कर सकता हूँ । इसने इतना भी बिचार नहीं किया । इसकी मति पथरा गई है , अतः यह भी पत्थर हो जाए । इस प्रकार अहिल्या को भी शाप मिल गया ।

    

   अहिल्या निर्जन वन में वर्षा, शीत, आतप आदि सहती हुई, भगवान श्रीराम के आने की प्रतीक्षा करने लगी । अब कोई एकमात्र श्रीराम की ही प्रतीक्षा कर रहा हो और श्रीराम न आएँ । ऐसा कहीं सम्भव है । श्रीरामजी सोचविमोचन हैं । वे सबके सोच संताप मिटाते हैं । लेकिन जो एकमात्र उन्हीं के भरोसे पड़ा हो । उसे वे कैसे भूल सकते हैं ?

   

    आगे-आगे ऋषि विश्वामित्र चले जा रहे हैं । बीच में दीन-मलीनों का उद्धार करने वाले श्रीरामजी और सबसे पीछे लक्ष्मण जी । मुनि तो आगे थे ही, वे चलते जा रहे थे । परन्तु श्रीरामजी तो अब आगे जा ही नहीं सकते थे । उन्हें तो अहिल्या का उद्धार करना था । परन्तु कैसे ? गुरू जी चलते जाएँ और राम जी अहिल्या का उद्धार करने लग जाय, ऐसा कहीं सम्भव हो सकता है ?



    श्रीरामजी दया, करूणा, शील, विनम्रता, कृतज्ञता, आदर्श, मर्यादा आदि जितने गुण हैं । सबके भंडार हैं, मूर्तिमान स्वरूप हैं  । ऐसे में पहले तो गुरू की आज्ञा लेनी/मिलनी चाहिए । क्योंकि गुरू जी साथ हैं । यदि साथ न होते तब दूसरी बात थी । इसलिए श्रीरामजी ने स्वयं मुनिराज से पूछा कि मुनिवर यह शिला कैसी है ? यह स्थान इतना सूना-सूना क्यों है ? तब विश्वामित्र जी ने अहिल्या की सारी कथा कह सुनाई । और आज्ञा भी दिया कि चरण कमल रज चाहत कृपा करो रघुवीर

   

   भगवान श्रीराम की चरण रज लगते ही अहिल्या शाप मुक्ति हो गई । अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त होकर भगवान का गुण गान करने लगी । उसे गौतम ऋषि का शाप वरदान लगा । क्योंकि उसे देव दुर्लभ श्रीराम जी के चरण रज की प्राप्ति हुई थी । जिसे मुनि लोग अनेक जन्मों की तपस्या से भी जल्दी प्राप्त नहीं कर पाते । अहिल्या सोचती है कि जिन भगवान के चरणों से निकली हुई गंगाजी को श्रीशिवजी हमेशा शीस पर रखते हैं  व्रह्मा जी हमेशा कमण्डल में लिए घूमते हैं आज उन्हीं भगवान ने हमें चरण रज दे दिया   इस प्रकार मुक्त होकर अहिल्या अपने पति गौतम ऋषि को पुनः प्राप्त हुई ।

  

   भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श होते ही अहिल्या का उद्धार हो गया यानी वह शाप के संताप से मुक्ति हो गई, लेकिन  भगवान राम को बदले में कोई हर्ष नहीं हुआ । उलटे पश्चाताप हुआ कि मुनि पत्नी को चरण लगाना पड़ा । कहाँ वह बर्षों से इसी प्रतीक्षा में थी कि रामजी आएँ और कृपा करें । तो मेरा कष्ट दूर हो । कष्ट दूर भी हुआ । इतना बड़ा उपकार करके भी अपने सरल व संकोची स्वभाव के चलते खुश होने के बजाय पश्चाताप करने लगे, मन अशांत हो गया । श्रीरामचरितमानस में तो यहाँ तक संकेत मिलता है कि अहिल्या उद्धार करके रामजी जाकर गंगा नहाये और दान दिये और उसके बाद शांत और प्रसन्नचित होकर आगे चले । विनयपत्रिका में गोस्वामीजी कहते हैं कि-


सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ ।

दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ।।


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चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की । कीजे लाज विरद अरु पन की ।।

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । हारत भीर सदा दीनन की ।।

कूर कपूत सकल दुर्जन की । नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।

सरन राम पद सब असरन की । सादर बाँह गहत निबरन की ।।

सार संभार राम दीनन की । करत सदा जोगवत जन मन की ।।

सुनत राम सबबिधि हीनन की । कोल किरात आदि बनरन की ।।

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । राखो लाज नाथ अब जन की ।।

दीन संतोष नहीं तन मन की । जप तप बल नहिं और जतन की ।।

मोरे आश राम चितवन की । पतितपावन अरु शील सदन की ।।

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।। जय रघुवर जय राम धनुर्धर ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।

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लोकप्रिय पोस्ट

कुछ पुरानी पोस्ट

।। गोस्वामी तुलसीदास जी का संदेश ।।

हे मनुष्यों भटकना छोड़ दीजिए तरह-तरह के कर्म, अधर्म और नाना मतों को त्याग दीजिए । क्योंकि ये सब केवल शोक और कष्ट देने वाले हैं । इनसे शोक दूर होने के बजाय और बढ़ता ही है । जीवन में ठीक से सुख-चैन नहीं मिलता और परलोक में भी शांति नहीं मिलती । इसलिए विश्वास करके भगवान श्रीराम जी के चरण कमलों से अनुराग कीजिए । इससे तुम्हारे सारे कष्ट अपने आप दूर हो जाएंगे-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू ।।

राम जी का ही सुमिरन कीजिए । राम जी की ही यश गाथा को गाइए और हमेशा राम जी के ही गुण समूहों को सुनते रहिए-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुनग्रामहिं ।।

।।जय सियाराम ।।

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विज्ञान का बीज

संसार में हर चीज का बीज (मूल कारण ) होता है । अर्थात संसार और सांसारिक चीजों का कोई न कोई उदगम होता है । सबका बीज से ही उत्पत्ति और आगे विकास होता है । विज्ञान का बीज मतलब मूल कारण क्या है ? विज्ञान का बीज कहाँ से आया ? विज्ञान का बीज किसने बनाया ? विज्ञान का बीज किसने दिया ? यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है । यहाँ पर हम लोग देंखेगे कि विज्ञान का बीज तो भगवान द्वारा ही इस संसार को उपलब्ध कराया गया है ।

बहुत से लोग समझते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी हैं । लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है । इस बात को समझने के लिए सनातन धर्म के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान का अध्ययन जरूरी है । आधुनिक विज्ञान की वैसे तो बहुत सी शाखाएँ हैं । परंतु इनमें से भौतिक विज्ञान यानी Physics ही ऐसा है जो व्रह्मांड के उत्पत्ति और संरचना की अध्ययन करता है । भौतिकी कि दो शाखाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । इनमे से एक जनरल रिलेटिविटी (General Relativity) और दूसरी क्वांटम मेकेनिक्स (Quantum Mechanics) है ।

गणित को आधुनिक विज्ञान की माता कहा जाता है । गणित का हम लोगों के जीवन और विज्ञान के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण रोल है । इस बात को हमारे ऋषि-मुनि भी जानते थे । अधिक जानकारी के लिए इस ब्लॉग के ‘गणित और व्रह्मांड’ लेख को पढ़ सकते हैं । आधुनिक गणित (Modern Mathematics) समुन्द्र के समान विस्तृत है । फिर भी समुच्चय सिद्धांत (Set Theory), संख्या सिद्धांत (Number Theory), फलन और तर्क सिद्धांत (Theory of Functions and Logic), आंशिक और साधारण अवकल समीकरण (Partial and Ordinary Differential Equations) और बीजगणित तथा आधुनिक बीजगणित (Algebra and Modern Algebra) आदि बहुत ही उपयोगी शाखाएँ हैं ।

गणित के अभाव में आधुनिक विज्ञान (Modern Science) और टेक्नोलोजी (Technology) की कल्पना ही नहीं की जा सकती । गणित को विद्वान और वैज्ञानिक विज्ञान की माता कहते हैं । लेकिन गणित की माता कौन है ? गणित की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है । गॉस (Gauss) नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ हुए हैं । गॉस ने कहा था कि गणित विज्ञान की माता है और संख्या सिद्धांत गणित की माता है । अब प्रश्न यह है कि संख्या सिद्धांत का मूल क्या है ? गणितज्ञ संख्या सिद्धांत का मूल प्राकृतिक संख्याओं (Natural Numbers) को बताते हैं । इंही से अन्य संख्याओं का विकास और संख्या सिद्धांत का विकास और फिर विज्ञान का विकास हुआ है । इस बात को वैज्ञानिक और गणितज्ञ जानते हैं ।

जो चीज प्राकृतिक होती है, उस पर सबका बराबर अधिकार होता है । जैसे हवा, गंगा जल आदि । ठीक इसीप्रकार से प्राकृतिक संख्याओं पर केवल पढ़े लिखे मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है । इस पर अनपढ़ लोगों का तथा साथ ही पशु-पक्षियों का भी अधिकार है । एक, दो, तीन आदि का किसे पता नहीं है । सब लोग गणना में इनका इस्तेमाल करते हैं ।

पशु-पक्षियों के पास भी गणना की योग्यता होती है । उदाहरण के लिए मान लीजिए एक बृक्ष पर किसी चिड़िया का घोसला है । मान लीजिए उसमें दस बच्चे हैं । अब यदि चिड़ियाँ के अनुपस्थिति में कोई एक बच्चे को गायब कर दे तो वापस आने पर चिड़ियाँ अशांत हो जाती है । इधर-उधर, आस-पास मँडराने और चिल्लाने लगती है । जबकि उसके सभी बच्चे एक जैसे होते हैं । फिर भी उसे पता चल जाता है कि एक बच्चा गायब हो गया है । चिड़ियाँ को एक दो लिखना या बोलना नहीं आता । लेकिन प्रकृति प्रदत्त गणना की योग्यता से उसे इसका भान होता है ।

अब प्रश्न यह है कि प्राकृतिक संख्याओं का मूल क्या है ? जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है । इसका मूल प्रकृति है । भगवान हैं । इस बात को क्रोंकर (Kronecker) नामक गणितज्ञ ने इस प्रकार कहा है- ‘Natural numbers are God given bricks’. अर्थात ये ईश्वर की दी हुई इंटें हैं ।

जिस प्रकार ईंट से भवन का निर्माण हो जाता है । इसी प्रकार से प्राकृतिक संख्या रुपी ईंटों से संख्या सिद्धांत रुपी भवन खड़ा किया गया । इस प्रकार से गणित की माता का जन्म हुआ । जिससे गणित बनी । फिर गणित के बाद गणित से आज का विज्ञान बना । इस प्रकार हम देखते हैं कि विज्ञान का बीज तो राम जी के द्वारा ही इस संसार को मिला है । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा है-

‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ए पंकज विकसे बिधि नाना’ ।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

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प्रार्थना

हे राम प्रभू मेरे भगवान । दीन सहायक दयानिधान ।।

तुम सम तुम प्रभु नहि को आन । गाये जग तेरा गुनगान ।।

तुमको सम प्रभु मान अमान । औरों को देते तुम मान ।।

धारण करते हो धनु वान । रखते हो निज जन की आन ।।

जग पालक जग के तुम जान । तुम ही ज्ञान और विज्ञान ।।

तुम सम नहि कोउ महिमावान । शिव अज नारद करें बखान ।।

वेद सके भी नहि पहिचान । जानूँ मैं क्या अति अज्ञान ।।

सरल सबल तुम सब गुनखान । दया करो हमको जन जान ।।

दूर करो अवगुन अभिमान । विद्यानिधि दो निर्मल ज्ञान ।।

छूटे नहि प्रभु तेरा ध्यान । संतोष शरन राखो भगवान ।।

।। जय सियाराम ।।

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राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल

राम नाम मंगलमूल दूर करे सब सूल ।

तू भूले जग को जग भूले तुझको राम नाम मत भूल ।।

रामनाम में रमों राम भजे होए जग अनुकूल ।

सारा जग बेसार राम नाम ही सार मद बस मत झूल ।।

जग जाल कब काल जाना है मत फूल ।

बिषयरस सुखतूल नाम रस सुख मूल संतोष जान मत भूल ।।

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भगवान की तलाश

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सदग्रंथ, सुसंत और भक्त कहते हैं कि भगवान सर्वब्यापी हैं । घट-घट वासी हैं । कण-कण में भगवान हैं । फिर भी भगवान नहीं मिलते । क्यों ?

जैसे ग्रंथों में अपार ग्यान का भंडार भरा है । और ग्रन्थ सब जगह उपलब्ध भी हैं । फिर भी वह ज्ञान सहज प्राप्त नहीं है । न ही ज्ञान ग्रन्थ (जिसमें ज्ञान भरा है ) के अवलोकन से और न ही स्पर्श से प्राप्त होता है । और तो और ज्ञान ग्रंथों को पढ़ डालने से भी प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही कण-कण में भगवान हैं और न ही दिखते हैं और न ही प्राप्त होते हैं ।

जैसे ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । ठीक ऐसे ही कण-कण रुपी ग्रन्थ में बसे ज्ञान रुपी भगवान को प्राप्त करने के लिए साधना, ध्यान, चिंतन-मनन, प्रेम और विश्वास चाहिए । मालुम हो सबको ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ठीक ऐसे ही सबको भगवान प्राप्त नहीं होते ।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त कर लेना तो आसान है लेकिन कण-कण में बसे भगवान को प्राप्त करना आसान नहीं है ।

लोग भगवान को खोजते हैं । भगवान को जानना, पाना अथवा देखना चाहते हैं । और भगवान स्वयं भक्त खोजते रहते हैं । लोग भगवान को तलाशते हैं और भगवान लोगों को । सच्चे भक्त की तलाश उन्हें हमेशा रहती है । सच्चे भक्त को भगवान को तलाशने की आवश्यकता ही नहीं रहती । भगवान स्वयं आकर मिलते हैं ।

कोई कितना ही बड़ा, संत, ज्ञानी अथवा विद्वान क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति नहीं है, तो उसे भगवान कदापि नहीं मिलेंगे । वहीं दूसरी ओर कोई कितना भी छोटा अथवा मूर्ख ही क्यों न हो, यदि उसमें भक्ति है, तो उसे भगवान मिल जायेंगे ।

सारा संसार भगवान को प्रिय है । लेकिन भक्त सबसे प्रिय है । भगवान केवल सच्चे भक्त को मिलते हैं । और किसी को नहीं ।

भगवान को यहाँ-वहाँ, चाहे जहाँ तलाशो, पूजा-पाठ करो, प्रवचन करो अथवा सुनों अर्थात चाहे जो साधन अथवा साधना करो भगवान मिलने वाले नहीं । भगवान प्रेम और भक्ति से ही द्रवित होते हैं ।

भगवान को ढकोसला और बनावट बिल्कुल रास नहीं आती, रास आती है तो सरलता, मन की निर्मलता ।

भगवन तो मिलना चाहते हैं, प्रकट होना चाहते हैं । इसके लिए वे बेताब रहते हैं । लेकिन मिलें तो किससे ? किसके सामने प्रकट हों ? उन्हें योग्य अधिकारी चाहिए ? अनाधिकारी को कुछ भी देना पाप-अधर्म होता है । भगवान अनघ और धर्म स्वरूप-धर्म धुरंधर हैं, तो वे पाप या अधर्म कैसे करें ?

कण-कण के वासी भगवान को प्रकट करने के लिए प्रहलाद जैसा प्रेमी भक्त चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज प्रहलाद जी के प्रेम की सराहना करते हुए कहते हैं कि-

प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहन से प्रमेश्वरू काढ़े

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भगवान को प्राप्त करने का सरलतम तरीका

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भगवान को प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते । क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

निर्मल मन जन सोमोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

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संकटमोचन मारूतनंदन

संकटमोचन मारूतनंदन हनूमान अतुलित प्रभुताई ।

महाबीर बजरंगबली प्रभु निज मुख कीन्ह बड़ाई ।।

राम सुसेवक राम प्रिय रामहु को सुखदाई ।

तुमसे तात उरिन मैं नाही कहि दीन्हेउ रघुराई ।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को राम से दिहेउ मिलाई ।

भक्त विभीषन धीरज दीन्हेउ राम कृपा समुझाई ।।

गुन बुधि विद्या के तुम सागर कृपा करि होउ सहाई ।

राम प्रभु के निकट सनेही अवसर पाइ कहउ समुझाई ।।

अब तो नाथ विलम्ब न कीजे वेगि द्रवहु सुर साई ।

अघ अवगुन खानि संतोष तो स्वामी तव चरण की आस लगाई ।।

विरद की रीति छ्मानिधि रखिए करुनाकर रघुराई ।

नाथ चरन तजि ठौर नहीं संतोष रहा अकुलाई ।।

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रघुपति राघव जन सुखदाई

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल सहजकृपाल अग जग के तू साई ।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव, हरि, बिधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोउ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहुँ वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।

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।। श्रीराम चालीसा ।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

श्रीरामचालीसा

दोहा-

तुलसिदास मानस विमल, राम नाम श्रीराम ।

पवनतनय अरु विनय पद, सादर करौं प्रनाम ।।

अविगत अलख अनादि प्रभु, जगताश्रय जगरूप ।

पद कंज रति देहु मोहि, अविरल अमल अनूप ।।

चौपाई-

जय रघुनाथ राम जग नायक । दीनबन्धु सज्जन सुखदायक ।।

प्रनतपाल सुंदर सब लायक । असरन सरन धरे धनु सायक ।।

नाम लेत मुद मंगल दायक । सरल सबल असहाय सहायक ।।

सुमुख सुलोचन अज अविनासी । संतत गिरिजा पति उर वासी ।।

अगम अगोचर जन दुखनासी । सहज सुगम अनुपम सुखरासी ।।

दया क्षमा करुना गुन सागर । पुरुष पुरान सुशील उजागर ।।

हरि हर बिधि सुर नर मुनि भावन । अघ अविवेक समूल नसावन ।।

भरत लखन रिपुहन हनुमाना । संग सिया राजत भगवाना ।।

रूप अनूप मदन मद हारी । गावत गुन सुर नर मुनि झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु देखि दुखारे । तजि निज धाम धरा पगु धारे ।

सुत बिनु दशरथ राय दुखारी । सुत होइ उनको कियो सुखारी ।।

मख हित मुनिवर अति दुःख पाए । दुष्टन दलि तुम यज्ञ कराए ।।

पाहन बनि मुनि गौतम नारी । सहत विपिन नाना दुःख भारी ।।

ससंकोच निज पद रज डारी । दयासिन्धु तुम कियो सुखारी ।।

सोच मगन नृप सिया सहेली । मातु सकल नर नारि नवेली ।।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी । भंजि चाप जय राम नमामी ।।

परशुराम बहु आँखि दिखाए । गुन गन कहि धनु देय सिधाये ।।

करि कुचाल जननी पछितानी । उनको बहुत भांति सनमानी ।

केवट नीच ताहि उर भेटा । सुर दुर्लभ सुख दै दुःख मेटा ।।

भरत भाय अति कियो बिषादा । जगत पूज भे राम प्रसादा ।।

आप गरीब अनेक निवाजे । साधु सभा ते आय बिराजे ।।

बन बन जाय साधु सनमाने । तिनके गुन गन आप बखाने ।।

नीच जयंत मोह बस आवा । जानि प्रभाव बहुत पछितावा ।।

शवरी गीध दुर्लभ गति पाए । सो गति लखि मुनिराज लजाये ।।

कपि असहाय बहुत दुःख मानी । बसत खोह तजि के रजधानी ।।

करि कपीस तेहिं निज पन पाला । जयति जयति जय दीनदयाला ।।

बानर भालू मीत बनाये । बहु उजरे प्रभु आप बसाये ।।

कोल किरात आदि बनवासी । बानर भालु यती सन्यासी ।।

सबको प्रभु कियो एक समाना । को नहि नीच रहा जग जाना ।।

कोटि भालु कपि बीच बराए । हनुमत से निज काज कराए ।।

पवनतनय गुन श्रीमुख गाये । जग बाढ़ै प्रभु आप बढ़ाए ।।

हनुमत को प्रभु दिहेउ बड़ाई । संकटमोचन नाम धराई ।।

रावण भ्रात निसाचर जाती । आवा मिलइ गुनत बहु भांती ।।

ताहिं राखि बहु बिधि हित कीन्हा । लंका अचल राज तुम दीन्हा ।।

चार पुरुषारथ मान बड़ाई । देत सदा दासन्ह सुखदाई ।।

मो सम दीन नहीं हित स्वामी । मामवलोकय अन्तरयामी ।।

रीति प्रीति युग-युग चलि आई । दीनन को प्रभु बहु प्रभुताई ।।

देत सदा तुम गहि भुज राखत । साधु सभा तिनके गुन भाखत ।।

कृपा अनुग्रह कीजिए नाथा । विनवत दास धरनि धरि माथा ।।

छमि अवगुन अतिसय कुटिलाई । राखो सरन सरन सुखदाई ।।

दोहा-

राम राम संतोष कहु भरि नयनन महु नीर ।

प्रनतपाल असरन सरन सरन देहु रघुवीर ।।

राम चालीसा नेम ते, पढ़ जो प्रेम समेंत

बसहिं आइ सियाराम जु, ताके हृदय निकेत ।।

।। सियावर रामचन्द्र की जय ।।

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।। श्रीराम स्तुति ।।

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।।

हे राम प्रभूजी दयाभवन । तुमसा है जग में और कवन ।।१।।

सुखसागर नागर जलजनयन । गुन आगर करुना छमा अयन ।।२।।

सुखदायक लायक विपति समन । भवतारन हारन जरा मरन ।।३।।

संकोच सिंधु धुर धर्म धरन । शारंगधर टारन भार अवन ।।४।।

जग पालन कारन सिया रमन । देवों को दायक तुम्ही अमन ।।५।।

मन लाजै तुमको देखि मदन । शोभा की सीमा शील सदन ।।६।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्वभरन । तुमको प्रभु बारंबार नमन ।।७।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन । बन जावो मेरे जीवनधन ।।८।।

दुख दारिद दावन दोष दमन । तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।९।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन । हो चित चकोर बिधु आप वदन ।।१०।।

नहि मालुम मुझको एक जतन । तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।११।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन । शरनागत राखन प्रभु का पन ।।१२।।

मेंरा उर हो प्रभु आप सदन । गहि बाँह रखो मोहि जानि के जन ।।१३।।

विनती प्रभुजी तारन तरन । मन का भी मेरे हो नियमन ।।१४।।

हे राम प्रभू मेरे भगवन । मैं चाह रहा तेरी चितवन ।।१५।।

करुनासागर संतोष सरन । है ठौर इसे बस आप चरन ।।१६।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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श्रीहनुमान स्तुति

।। श्री हनुमते नमः ।।

जय हनुमंत जयति मतिसागर । बल विक्रम त्रैलोक उजागर ।।१।।

पवनतनय समरथ गुन आगर । जय कपीस सेवक हित नागर ।।२।।

महावीर सब सिधि निधि दायक । जय रनधीर राम गुन गायक ।।३।।

रामदूत सुंदर सब लायक । बसत हिय सिय सह रघुनायक ।।४।।

ज्ञान विज्ञान विवेक अपारा । तव गुनगन गावत जग सारा ।।५।।

रवि सुरेश तव पौरुष भारी । जानत सकल देव नर नारी ।।६।।

दानव दैत्य भूत जग जेते । डरपहिं नाम सुनावत तेते ।।७।।

छीजहिं सकल दुष्ट अधियारी । घोर निशा जिमि देखि तमारी ।।८।।

अग-जग जाल सकल जेहिं सिरिजा । मानत सकल देव हर गिरिजा ।।९।।

सेवक तासु प्रिय सुखदाई । बार-बार प्रभु कीन्हि बड़ाई ।।१०।।

कहेउ उरिन तुमसे नहि भाई । संकटमोचन नाम धराई ।।११।।

धन्य-धन्य कीरति जग छाई । शेष-महेश सके नहि गाई ।।१२।।

हरि-हर-बिधि तव भगति सराही । राम भगत तुम सम कोउ नाही ।।१३।।

राम प्रेम मूरति धरे देहीं । मिले जेहिं आप राम मिले तेहीं ।।१४।।

राम प्रभू के निकट सनेही । दीन मलीन प्रनत जन नेही ।।१५।।

अघ अवगुन छमि होउ सहाई । संतोष मिलैं जेहि श्रीरघुराई ।।१६।।

।। श्रीहनुमानजी महाराज की जय ।।

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